भारतेंदु के पूर्ववर्ती नाटककारों में रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह जूदेव(1846-1911) के ब्रजभाषा में लिखे गए ‘आनंद रघुनंदम’ और गोपाल चंद्र के ‘नहुष’ (1841) को हिंदी का पहला नाटक माना जाता है। आनंद रघुनंदन की रचना पहले हिंदी और फिर संस्कृत में हुई। दुर्भाग्य से इसका रचना काल किसी अन्तरसाक्ष्य और बाह्य साक्ष्य के अभाव में निश्चित नहीं हो पाया है। उसके रचनाकाल का उल्लेख ना तो पांडुलिपि में है और ना ही कहीं और। माना जाता है कि यह रचना संवत 1800 से 1911 के मध्य कभी हुई होगी। एक दावा यह भी है कि संवत 1830 में इसकी रचना हुई थी।
आनंद रघुनंदन का प्रथम प्रकाशन वर्ष 1871 को लॉयड यंत्रणालय काशी से हुआ था। उस दौरान इसकी प्रतियां राज परिवार के सदस्यों, मित्रों और सम्बंधियों को ही वितरित की गई थी। जनसुलभ करने के उद्देश्य से विंध्य प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन रीवा द्वारा पौष संवत 2017 (दिसंबर 1960) में इसका पुनप्र्रकाशन मार्तंड प्रेस रीवा द्वारा कराया गया और 2000 प्रतियां प्रकाशित की गईं। जिसका सम्पादन दीपचंद्र जैन, शंकर शेष और कृष्णकांत पांडेय द्वारा किया गया। इन्हीं कुछ प्रतियों को केंद्रीय पुस्तकालय रीवा में ऐतिहासिक दस्तावेज स्वरूप संरक्षित कर रखा गया था। अब तक करीब 60 वर्षों का लंबा समय बीतने के बाद भी आज तक इसके संरक्षण का कोई प्रयास नहीं किया गया। जबकि अब आनंद रघुनंदन रंगमंच में अपनी राष्ट्रीय स्तर की पहचान बना चुका है।
विंध्य क्षेत्र हिंदी भाषा का एक मूल पीठ रहा और हिंदी को यहां से सदैव सम्बल मिला। प्रथम बांधव नरेश महाराज कर्णदेव (1183-1203) के समय से ही इस वंश के साहित्य सृजन की उज्ज्वल परंपरा का आरम्भ होता है। महाराजा कर्णदेव ने ‘रारावलीÓ नामक ग्रंथ की रचना की थी। 19वीं शताब्दी में महाराजा जय सिंह ने संस्कृत के पुराणों को हिंदी मेकथानक काव्यों के रूप में प्रस्तुत किया। जय सिंह के पुत्र विश्वनाथ सिंह और उनके पुत्र रघुराज सिंह संस्कृत के मुख्य कवियों में रहे। महाराजा विश्वनाथ सिंह ने 19 ग्रंथ संस्कृत में और 15 ग्रंथ हिंदी में लिखे। इन्ही में एक है ‘आनंद रघुनंदनÓ जो कि हिंदी और संस्कृत भाषा मे रचित एकांकी है। इस राजघराने के लोगों में अब तक साहित्य-कला को बेहतर रूप देने के प्रयास किए जा रहे हैं।
ये विंध्य का दुर्भाग्य ही रहा कि हमारी आंखों के सामने हमारा साहित्य, विरासत, ऐतिहासिक धरोहरें नष्ट होती जा रही हैं और इसके लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। कुछ पांडुलिपियां और साहित्य किला स्थित संग्रहालय और पुस्तकालय में रखा है मगर वह जनसामान्य की पहुंच से दूर हंै। लेखक मनीष मिश्रा बताते हैं कि कुछ साहित्य केंद्रीय पुस्तकालय में रखा गया था जिसे सामान्य जन या शोधार्थी देख सकते थे या पढ़ सकते थे, मगर कर्मचारियों की लापरवाही के चलते वो नष्ट होते जा रहे हैं। संस्कृति मंत्रालय को इन बहुमूल्य साहित्य का पुन: प्रकाशन करा महाविद्यालयों के पुस्तकालयों को उपलब्ध कराना चाहिए। इसके लिए साहित्य जगत के लोगों को आगे बढ़ कर पहल किए जाने की आवश्यकता है। बताया जा रहा है कि आनंद रघुनंदन की प्रति को केन्द्रीय पुस्तकालय में दीपक खा गए हैं, कुछ हिस्सा बचा था जिसे सहेज कर रखा गया है।