क्यों की जाती है कांवड़ यात्रा?
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान भोलेनाथ के भक्त हरिद्वार से पवित्र नदी गंगा का जल लेकर शिवजी का अभिषेक करने के लिए अपने स्थानीय शिव मंदिर तक कांवड़ को कंधे पर उठाकर लाते हैं। ये संपूर्ण यात्रा पैदल ही की जाती है। कावड़ यात्रा करने वाले भक्तों को कांवड़िया कहा जाता है। कांवड़ के जल से भगवान भोलेनाथ का अभिषेक श्रावण मास की चतुर्दशी के दिन किया जाता है। मान्यता है कि इस कठिन यात्रा को करके कांवड़ के पवित्र जल से भगवान भोलेनाथ का अभिषेक करने वाले व्यक्ति की हर मनोकामना पूरी होती है और शिव जी की कृपा उस पर बनी रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस कांवड़ यात्रा द्वारा यह संदेश मिलता है कि भगवान भोलेनाथ केवल अपने भक्तों की श्रद्धा और एक लौटे जल के अभिषेक से भी प्रसन्न हो जाते हैं।
कब हुई कांवड़ यात्रा की शुरुआत?
कावड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार सबसे पहले कांवड़ यात्री श्रवण कुमार को माना जाता है जिन्होंने अपने नेत्रहीन माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर संपूर्ण यात्रा पैदल की थी। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को हरिद्वार लाए थे और यहां से गंगा का जल लेकर शिवजी का अभिषेक करवाया था।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने सर्वप्रथम गड़मुक्तेश्वर से नंगे पैर कांवड़ यात्रा करके बागपत के निकट स्थित पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का गंगाजल से अभिषेक किया।
(डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई सूचनाएं सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। patrika.com इनकी पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ की सलाह ले लें।)