रक्षाबंधन की कहानी नंबर 1
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा था कि हे अच्युत मुझे रक्षाबंधन की वह कथा सुनाइये, जिसके सुनने से मनुष्य को प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है और उसके दुख दूर होते हैं। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे पांडव श्रेष्ठ! एक बार की बात है देव दानव युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध 12 वर्षों तक चलता रहा। असुरों ने देवताओं और उनके राजा इंद्र को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। इससे इंद्र और अन्य देवताओं को अमरावती पलायन करना पड़ा। दैत्यराज ने तीनों लोकों को वश में कर लिया और देवराज इंद्र के सभा में आने पर रोक लगा दी। साथ ही देवताओं और मनुष्यों के यज्ञ कर्म करने पर रोक लगा दी। सभी लोगों को उसकी पूजा का आदेश दिया।
इस आदेश के कारण यज्ञ, उत्सव, वेद पठन पाठन सब बंद हो गए। धर्म के नाश से देवताओं का बल घटने लगा। यह देख इंद्र देवगुरु बृहस्पति के पास पहुंचे और उनके चरणों में निवेदन किया कि हे गुरुवर! ऐसी स्थितियों में मुझे प्राण त्यागने होंगे। न ही भाग सकता हूं और न ही युद्ध भूमि में असुरों का सामना कर सकता हूं, कुछ उपाय बताइये। इस पर गुरु बृहस्पति ने उन्हें रक्षा विधान करने की सलाह दी। श्रावण पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल येनबद्धो बलिःराजा, दानवेंद्रो महाबलः, तेन त्वामिभिवध्नामि रक्षे मा चल मा चलः।। मंत्र के साथ रक्षा विधान संपन्न किया गया और इंद्राणी ने सावन पूर्णिमा के अवसर पर विप्रों से स्वस्तिवाचन कराकर रक्षा का तंतु लिया और इंद्र की दाईं कलाई में बांधकर युद्ध भूमि में भेज दिया। इसके प्रभाव से दानव भाग खड़े हुए और देवताओं की विजय हुई। यहीं से रक्षा बंधन की प्रथा शुरू हुई। ब्राह्मण आज भी राखी (rakhi) के दिन अपने यजमानों के यहां जाकर रक्षासूत्र बांधते हैं।
रक्षाबंधन की कहानी नंबर 2 (कृष्ण द्रौपदी की कहानी)
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार महाभारतकाल में इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के समय की बात है। यहां भगवान श्रीकृष्ण को प्रतिद्वंद्वी मानने वाला उनकी बुआ का लड़का शिशुपाल भी पहुंचा था। यहां अग्र पूजा को लेकर शिशुपाल कुपित हो गया और सावन पूर्णिमा के दिन भगवान श्रीकृष्ण को लेकर आपत्तिजनक बातें करने लगा। बुआ को पूर्व में दिए वचन के अनुसार कन्हैया ने शिशुपाल की 100 गलतियों को माफ किया और चेतावनी दी, फिर भी वह नहीं माना। इस पर भगवान ने सुदर्शन चक्र का आवाहन कर शिशुपाल का शीश धड़ से अलग कर दिया। लेकिन सुदर्शन के घूमने के कारण उनकी अंगुली से रक्त निकलने लगा।
यह देखकर वहां मौजूद उनकी फुफेरी बहन द्रौपदी ने साड़ी का पल्लू फाड़कर उनकी अंगुली में बांधा और रक्त प्रवाह बंद किया। इस पर उन्होंने वचन दिया कि इसका ऋण चुकाएंगे। फिर एक समय ऐसा आया कि हस्तिनापुर की सभा में दुःशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करने की कोशिश की, उस समय भगवान ने द्रौपदी की लाज बचाई। भगवान के प्रभाव से द्रौपदी की साड़ी ऐसी बढ़नी शुरू हुई कि उसे खींच रहा दुःशासन सभा में गिर गया पर साड़ी नहीं खींच पाया। इस प्रकार भगवान ने चीर बढ़ाकर रक्षाबंधन का फर्ज निभाया।
असुरराज बलि दानवीर और भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। एक बार उन्होंने यज्ञ किया। इसी दौरान वामन भगवान विष्णु ने दान में राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी। उन्होंने दो पग में पूरी पृथ्वी और आकाश नाप लिया और तीसरा पग रखने के लिए जगह मांगी। इस पर राजा बलि ने अपना सिर उनके चरणों के नीचे रख दिया। इससे प्रसन्न भगवान ने वरदान मांगने के लिए कहा और उन्हें पाताल लोक जाकर राज्य करने का आदेश दिया। इस पर असुर राज बलि ने उन्हें अपने पाताल के महल के द्वार पर द्वारपाल बनने का वरदान मांगा।
भगवान ने भी भक्त की बात मान ली और बैकुंठ छोड़कर पाताल चले गए।
रक्षाबंधन की कहानी नंबर 4 (कर्मवती हुमायूं की कथा)
मुसलमान शासक भी रक्षाबंधन त्योहार के प्रभाव में आए बिना नहीं रह सके थे। चित्तौड़ की हिंदू रानी कर्मवती ने दिल्ली के शासक हुमायूं को अपना भाई मानते हुए राखी भेजी। हुमायूं ने उसकी राखी स्वीकार की और समय आने पर रानी के सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह से युद्ध किया।
रक्षाबंधन की कहानी नंबर 5 (सिकंदर की कहानी)
रक्षाबंधन की इस कथा के अनुसार पूरी दुनिया को फतह करने निकला सिकंदर भारत पहुंचा तो उसका सामना राजा पुरु से हुआ। राजा पुरु ने युद्ध में सिकंदर को धूल चटा दी। इसी दौरान सिकंदर की पत्नी को भारतीय त्योहार रक्षाबंधन के बारे में पता चला तो उसने अपने पति सिकंदर की जान बख्शने के लिए राजा पुरु को राखी भेजी। पुरु आश्चर्य में पड़ गए, लेकिन राखी का सम्मान किया और युद्ध में सिकंदर पर वार करने के लिए अपना हाथ उठाया तो राखी के कारण ठिठक गए और बंदी बना लिए गए। इधर, बंदी पुरु की कलाई में पत्नी की राखी को देखकर सिकंदर ने भी बड़ा दिल दिखाया।