इन चौपाईयों के करें अनुसरण
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥ परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। यह चौपाई हमें स्वार्थ छोड़कर दूसरों की मदद करने की प्रेरणा देती है। यदि आप दूसरों की भावनाओं की कद्र नहीं करते, तो यह आदत बदलने में सहायक है। दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥ इसका अर्थ है कि काम, क्रोध, मद और लोभ ये सब नरक के द्वार हैं। इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए। जिन्हें संत भजते हैं। विभीषण अपने बड़े भाई रावण को समझाते हुए कहते हैं कि अहंकार, काम, क्रोध ये सभी मनुष्य को पाप के रास्ते पर लेकर जाते हैं। इसलिए इन्हें त्याग देना चाहिए। और संतों की भांति राम नाम का जाप करना चाहिए।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥ सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है। बिना अच्छे संगति के विवेक नहीं होता और भगवान की कृपा के बिना सत्य का ज्ञान संभव नहीं है। इस चौपाई के माध्यम से गलत संगति से बचने और अच्छे लोगों के साथ रहने की प्रेरणा मिलती है।
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥ धैर्य, धर्म, मित्र और नारी- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन। यह चौपाई हमें कठिन समय में धैर्य और सही मार्ग पर टिके रहने की प्रेरणा देती है।
निज दु:ख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥ जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥ मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं। यह चौपाई मनुष्य को यह सिखाती है कि हानि, लाभ और जीवन-मरण सब भगवान के हाथ में हैं लेकिन व्यक्ति को कभी निराश होकर नहीं बैठना चाहिए।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥ संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है। परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥ जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है। वहीं संतों के मिलने के समान जगत् में दूसरा कोई सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥ जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। ऐसा कहकर शिव भगवान हरि का नाम जपने लगे और सती वहां गईं जहां सुख के धाम प्रभु राम थे।
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥ ममता में फंसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है। अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है।