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प्रणाम अन्तर्मन को शुद्ध कर सत्यं-शिवं-सुन्दरं का कराता है बोध

जहां अहंकार है वहां प्रणाम नहीं हो सकता। प्रणाम तो वही करता है जिसका अन्तर्मन शांत और शुद्ध होता है।

Nov 12, 2017 / 09:31 am

Deovrat Singh

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जहां अहंकार है वहां प्रणाम नहीं हो सकता। प्रणाम तो वही करता है जिसका अन्तर्मन शांत और शुद्ध होता है।

भारतीय संस्कृति में प्रणाम का अत्यधिक महत्व है। प्रणाम में केवल दोनों हाथों को जोड़कर झुकना ही नहीं होता है अपितु शुद्ध अन्तर्मन से प्रणाम के जो स्वर निकलते हैं वे शब्द की महत्ता को चरितार्थ भी करते है। भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म तक कहा गया है अर्थात् शब्द में परिवर्तन की जो क्षमता होती है उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। प्रणाम में जब-जब हाथों को जोड़ा जाता है तो यह सदाशयता का प्रतीक है। निष्ठुर व्यक्ति कभी हाथ नहीं जोड़ता है क्योंकि दूसरों के प्रति सम्मान का भाव उसमें नहीं होता है।
सदाशयी व्यक्ति के हाथ दूसरों के सम्मान में स्वत: जुड़ जाते हैं। प्रणाम को शीतलता भी कहा गया है। प्रणाम में वही हाथ सम्मान के लिए उठते हैं जिसके अन्दर शीतलता का भाव होता है। जहां उग्रता, व्यग्रता, उद्दण्डता, प्रचंडता का भाव होता है उससे ‘प्रणाम’ की अभीप्सा कभी नहीं की
जा सकती है।
जाने-अनजाने में कई बार बड़ों की उपेक्षा हो जाती है। यदि बड़ों को सम्मान मिलता रहे तो घर में सुख, समृद्धि, प्रेम, समता का भाव विकसित होता है।
प्रणाम भारतीय संस्कृति का ऐसा उपहार है जो क्रोध मिटाता है, आदर सिखाता है, लोगों के आंसू धो देता है। अन्तर्मन को शुद्ध करता है तथा सत्यं, शिवं एवं सुन्दरं का बोध कराता है।
प्रणाम से विनम्रता का भाव होता है पुष्ट
प्रणाम प्राय: शीश नवाकर किया जाता है। हनुमानजी कोई बड़ा कार्य करने के लिए तत्पर होते थे, तो दोनों हाथ जोड़कर तथा शीश नवाकर भगवान राम को प्रणाम करते थे। यह भगवान के प्रति उनकी विनम्रता थी। हनुमान की यह मुद्रा आज जनमानस को भक्तिभाव से भर देती है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा- भगवन! प्रणाम से क्या लाभ है? प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा- ‘प्रणाम शीतलता है। प्रणाम करने वाला बाहर से भीतर तक शीतल रहता है। कोई उसे कभी उग्र नहीं बना सकता। सचमुच वह विनम्रता से होता है।
अहंकार को मिटाकर मन करता है शांत
अहंकार व्यक्तित्व की हीनदशा है, कमजोरी है। अहंकारी अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता है। क्रोध उसका आभूषण होता है। क्रोध के वशीभूत होकर अनिष्ट से अनिष्ट कर बैठता है। इतिहास साक्षी है कि अहंकार में व्यक्ति राजपाट, धन-वैभव तथा वंश सभी कुछ खोया है। इस भयंकर अहंकार की निवृत्ति प्रणाम से होती है। प्रणाम करने वाला कभी अहंकारी नहीं हो सकता। जहां अहंकार है वहां प्रणाम नहीं हो सकता। प्रणाम तो वही करता है जिसका अन्तर्मन शांत और शुद्ध होता है। मन में यदि विकार भरे पड़े हैं तो प्रणाम का भाव मन में नहीं आ सकता क्योंकि अहंकारी कभी झुक नहीं सकता और प्रणाम में झुकना होता है। अहंकारी किसी के समक्ष हाथ जोड़ नहीं सकता जबकि प्रणाम में दोनों हाथों को जोडऩा पड़ता है।
सुविचारों और विश्वास का है संवाहक
प्र णाम के भाव जिसमें निहित हैं, जो प्रतिदिन बड़ों के चरण छूते है। उनके मन-मस्तिष्क में कभी सुविचारों की कमी नहीं रहती है। प्रणाम करने वाला विश्वसनीय होता है। इसमें जो सम्मान भाव है उससे सभी लोग उस पर विश्वास करते हैं। विश्वास का कारण यह भी है कि उसके मन में सदैव अच्छे से अच्छे विचार उपजते हैं। वे विचार जब वाणी के रूप में अभिव्यक्त होते हैं तो उसका मान-सम्मान और बढ़ जाता है।
प्रणाम से जब द्रोपदी बनी सौभाग्यवती
महाभारत के युद्ध के समय जब पितामह भीष्म ने पांडवों का नाश करने की बात कही तो श्रीकृष्ण द्रोपदी को लेकर भीष्म पितामह के शिविर में पहुंचे और उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद लेने को कहा। भीष्म ने उन्हें अखंड सौभाग्यवती भव’ का आशीर्वाद दे दिया। श्रीकृष्ण बोले, ‘तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया है। अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि को प्रणाम करती होती तो इस युद्ध की नौबत ही नहीं आती।’
अनुशासन और प्रेम की देता सीख
को ई बाहरी व्यक्ति आपसे कितनी भी घृणा करता हो, यदि आप चाहते हैं कि वह आपसे प्रेम करने लगे तो एक ही महामंत्र है ‘प्रणाम’। आप प्रतिदिन उसे प्रणाम करना शुरू कर दें। हो सकता है प्रारम्भ में आपको कोई जवाब न मिले, यह भी हो सकता है कि आपको जवाब भी मिले जिससे आपके दिल को ठेस पहुंचे किन्तु आप प्रणाम की निरन्तरता बनाये रखें और धैर्य भी रखें, एक दिन अवश्य आएगा जब वह न केवल शत्रुता का त्याग करेगा अपितु आशीष से आपको सराबोर भी कर देगा।

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