Devyatharvashirsham Stotra in Hindi: विद्वानों के अनुसार देवी अथर्वशीर्षम् का सायंकाल में अध्ययन करने से दिन में किए हुए पापों का नाश हो जाता है, प्रातःकाल अध्ययन करने वाला रात्रि में किए हुए पापों से मुक्त हो जाता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है।
मध्यरात्रि में तुरीय संध्या (जो की मध्यरात्रि में होती है) के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है। नई प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् (Devyatharvashirsham Stotra in Hindi)
ॐ सभी देवता, देवी के समीप गये और नम्रता से पूछने लगे – हे महादेवि तुम कौन हो॥1॥ उसने कहा – मैं ब्रह्मस्वरूप हूं। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है॥2॥ मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूं। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूं। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूं। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूं। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूं॥3॥
वेद और अवेद मैं हूं। विद्या और अविद्या भी मैं, अज्ञा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूं॥4॥ मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूं। मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूं। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूं॥5॥
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूं। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूं॥6॥
देवों को उत्तम हवि पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूं। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में (यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूं। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूं। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है॥7॥
तब उन देवों ने कहा – देवी को नमस्कार है। बड़े-बड़ों को अपने-अपने कर्तव्य में प्रवृत करने वाली कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है। गुणासाम्यावस्थारूपिणी मङ्गलमयी देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं॥8॥
उस अग्निके-से वर्णवाली, ज्ञान से जगमगाने वाली दीप्तिमती, कर्म फल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है॥9॥
प्राण रूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते है। वह कामधेनु तुल्य आनन्दायक और अन्न तथा बल देने वाली वाग् रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से सन्तुष्ट होकर हमारे समीप आये॥10॥
काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं॥11॥ हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते है। वह देवी हमें उस विषय में (ज्ञान-ध्यान में) प्रवृत करें॥12॥
हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुई और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए॥13॥ काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा-वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल-वर्ण और माया (ह्रीं)- यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है॥14॥
ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये ‘श्रीमहाविद्या’ हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है॥15॥ भगवती! तुम्हें नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो॥16॥
(मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं -) वही ये अष्ट वसु हैं; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वदेव हैं; वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्धि हैं; वही ये सत्व-रज-तम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णु-रूद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली, अन्तरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मङ्गलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं॥17॥
वियत्-आकाश (ह) तथा ‘ई’ कार से युक्त, वीतिहोत्र-अग्नि (र)-सहित, अर्धचन्द्र (ँ)-से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं)- का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवी प्रणव माना जाता है। ॐकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है। संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्ति स्फुरण है।)॥18-19॥
वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू-काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त (चा), सूर्य (म), ‘अवाम श्रोत्र’- दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त (यै) और ‘विच्चे’ यह नवार्ण मन्त्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देने वाला है॥20॥
हृत्कमल के मध्य में रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अङ्कुश धारण करने वाली, मनोहर रूप वाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्त वस्त्र परिधान करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ॥21॥
महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान् करूणा की साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ॥22॥ जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते – इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अन्त नहीं मिलता – इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता – इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता – इसलिये जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली सर्वत्र है – इसलिये जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है – इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती हैं॥23॥
सब मन्त्रों में ‘मातृका’- मूलाक्षर रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ) – रूप से रहने वाली, ज्ञानों में चिन्मयातीता, शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं॥24॥
उन दुर्विज्ञेय, दुराचार नाशक और संसार सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूं॥25॥
देवी अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पांचों अथर्वशीर्षों के जपका फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तरशत (108) जप (इत्यादि) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है॥26॥