अन्त:करण की श्रद्धा और दिव्य चेतना के संयोग की उपलब्धि, दिव्य संवेदना कहलाती है, जो नए सिरे से, नए उल्लास के साथ उभरती हैं । यही उसकी यथार्थता वाली पहचान है, अथवा मान्यता तो प्रतिमाओं में भी आरोपित की जा सकती है। तस्वीर देखकर भी प्रियजन का स्मरण किया जा सकता है, पर वास्तविक मिलन इतना उल्लास भरा होता है कि उसकी अनुभूति अमृत निर्झरिणी उभरने जैसी होती है । इसका अवगाहन करते ही मनुष्य कायाकल्प जैसी देवोपम स्थिति में जा पहुँचता है । उसे हर किसी में अपना आपा हिलोरें लेता दीख पड़ता है और समग्र लोकचेतना अपने भीतर घनीभूत हो जाती है । ऐसी स्थिति में परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ बन जाता है ।
दूसरों की सुविधा अपनी प्रसन्नता प्रतीत होती है और अपनी प्रसन्नता का केन्द्र दूसरों की सेवा-सहायता में घनीभूत हो जाता हैं । ऐसा व्यक्ति अपने चिन्तन और क्रियाकलापों को लोक-कल्याण में, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में ही नियोजित कर सकता है । व्यक्ति के ऊपर भगवत् सत्ता उतरे, तो उसे मनुष्य में देवत्व के उदय के रूप में देखा जा सकता हैं । यदि यह अवतरण व्यापक हो, तो धरती पर स्वर्ग के अवतरण की परिस्थितियाँ ही सर्वत्र बिखरी दृष्टिगोचर होंगी ।