आपको बता दें कि, रतलाम जिले के अंतर्गत आने वाले कनेरी गांव में ये परंपरा बीते कई वर्षों से मनाई जाती आ रही है। यहां रहने वाले गुर्जर समाज के लोग आज भी इस परंपरा को अपने पूर्वजों द्वारा बताए तरीके पर विधिवत पालन करते आ रहे हैं। परंपरा के अनुसार, दीवाली के दिन गुर्जर समाज के लोग कनेरी नदी के पास इकट्ठे होते हैं। फिर एक कतार में खड़े होकर एक लंबी बेर को हाथ में लेकर उस बेर को पानी में बहाते हैं। इसके बाद बेर की विशेष पूजा की जाती है। पूजा के बाद समाज के सभी लोग मिलकर घर से लाया हुआ खाना खाते हैं। इसके बाद पूर्वजों द्वारा शुरू की गई परंपरा का पालन करना शुरु होता है। परंपरा के तहत दीपोत्सव के पांच दिन में से तीन दिन यानी रूप चौदस, दीवाली और पड़वी के दिन ये लोग ब्राह्मणों का चेहरा नहीं देखते।
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विशेष पूजा के तहत लेते हैं एकजुटता का संकल्प
परंपरा को लेकर गुर्जर समाज के लोगों का कहना है कि, इसे उनके पूर्वजों द्वारा शुरू किया गया था, जिसे समाज के लोग लंबे समय से यथावत निभाते आ रहे हैं। गुर्जर समाज के लिए दिवाली का दिन सबसे अहम माना जाता है। लोग नदी के किनारे बेर पकड़कर पितृ पूजा करते हैं। इस पूजा के जरिए ये एकजुट रहने का संकल्प भी लेते हैं।
मान्यता का कारण है श्राप
गुर्जर समाज की मान्यता के अनुसार, कई वर्षों पहले समाज के आराध्य भगवान देवनारायण की माता ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था। इस श्राप के तहत दिवाली के 3 दिन रूप चौदस, दीपावली और पड़वी तक कोई भी ब्राह्मण गुर्जर समाज के सामने नहीं आ सकता। वहीं, गुर्जर समाज के लोग भी इन तीन दिनों के भीतर किसी ब्राह्मण को नहीं देखते। उनके अनुसार, इसी मान्यता को जीवित रखते हुए तभी से गुर्जर समाज दिवाली पर विशेष पूजा करता है। इस दिन कोई भी ब्राह्मण गुर्जरों के सामने नहीं आता और ना ही कोई ब्राह्मणों के सामने जाता है। इस परंपरा के चलते गांव में रहने वाले सभी ब्राह्मण अपने-अपने घरों के दरवाजे बंद करके रखते हैं।
समय के साथ कम हुए लोग
कनेरी गांव में जारी परंपरा बीते कई सालों से जारी है। हालांकि, समय के साथ साथ अब इस परंपरा को निभाने वालों की संख्या कम हो रही है। फिलहाल, गांव में कुछ बुजुर्ग ही इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। पूरे विधि-विधान से पूजा अर्चना की जाती है। जब दीवाली पर गुर्जर समाज के लोग नदी पर पूजा करने जाते हैं, तो गांव में सन्नाटा पसर जाता है।
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