आचार्य ने कहा कि धर्म कैंची नहीं है और कैंची का काम भी नहीं करता। वह सुई की तरह दो फटे दिलों को जोडता हैं। धर्म एक अखंड चेतना है, जब वह खंड-खंड होती है,तो उससे पाखंड पैदा होता है। धर्म और पाखंड का कोई मेल नहीं है। पाखंडियों ने धर्म को जितना बदनाम किया है, उतना अधर्मियों ने नहीं किया। धर्म व्यक्ति के अंतकरण में है, पर उसका प्रतिबिम्ब व्यक्ति के व्यवहार पर पडता हैं। व्यवहार जब तक समता मूलक नहीं होता, तब तक धर्म का जीवन में अवतरण होना नहीं कहा जा सकता। समता धर्म है और विषमता अधर्म है। सहिष्णुता, विवेक और धेर्य सभी धर्म के व्यवहार है। इन्हीं से किसी व्यक्ति के धार्मिक होने की पहचान होती है। अपने जीवन में जो भी इन तीन सूत्रों को अपना लेता है, उसे धार्मिक होने से कोई रोक नहीं सकता।