350 साल पुरानी भगवान नरसिंह मंदिर की अलौकिक मूर्ति की कहानी, जानिए नेपाल से क्यों है इसका जुड़ाव
राजगढ़। नैसर्गिक सौंदर्य एवं प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों को अपने विस्तार में समेटे देवभूमि नरसिंहगढ़ (Narsingh garh) यहां स्थापित भगवान नरसिंह (Lord Narsingh Temple) की प्राचीनतम मूर्ति के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां के भगवान नरसिंह का मंदिर अपने आप में अलौकिक है। देश का यह इकलौता मंदिर है जहां भगवान नरसिंह की अष्टधातु की प्रतिमा सुशोभित है। राजगढ़ (Rajgarh) से करीब 19 किलोमीटर दूर नरसिंहगढ़ इसी जिले का हिस्सा है। राजगढ़ आजादी के बाद गठित मध्य भारत का सबसे पुराना जिला है। इसको 1948 में ही जिला के रुप में मान्यता दे दी गई थी। हालांकि, इतिहास के पन्नों पर नगर दौड़ाए तो राजगढ़ प्राचीन (Ancient state Rajgarh) भारत का एक राज्य हुआ करता था। सन् 1347 में राजगढ़ राज्य की स्थापना तत्कालीन उमठ-परमार वंश के शासन रावत सारंगसेन ने किया था। राज्य की स्थापना के बाद राज्य में भगवान नरसिंह के मंदिर की स्थापना की गई। उमठ राजाओं (Umath Kings) के कुलदेवता भगवान नरसिंह हैं।
अलग हुए नरसिंहगढ़ में स्थापित की गई अष्टधातु की प्रतिमा राजगढ़ काफी प्रसिद्ध राज्य हुआ करता था। 1680 में राजगढ़ के शाही परिवार में विवाद हो गया। तत्कालीन शासक रावत मोहन सिंह (Parmar Rajput dynasty Rawat Mohan Singh) व उनके काका दीवान परशुराम (Diwan Parshuram who later become king of Narsinghgarh))के बीच पारिवारिक विवाद को सुलझाने के लिए राजगढ़ के विभाजन का निर्णय हुआ। राजगढ़ का विभाजन कर एक अन्य राज्य की भी स्थापना की गई (After division of Rajgarh, a new state Narsinghgarh came into existence)। चूंकि, इस राजपरिवार के कुलदेवता भगवान नरसिंह थे इसलिए नए राज्य का नामकरण उनके नाम पर नरसिंहगढ़ (Narsinghgarh) किया गया। नए राज्य नरसिंहगढ़ में राजा परशुराम (King Parshuram)ने भगवान नरसिंह की मंदिर (temple of Lord Narsingh) बनवाई। उन्होंने नेपाल में भगवान नरसिंह की अष्टधातु (octal metal) की प्रतिमा के बारे में सुन रखा था। उन्होंने निर्णय लिया कि नरसिंहगढ़ में भी भगवान की अष्ठधातु की प्रतिमा ही प्रतिष्ठित की जाएगी। बताया जाता है कि राजा परशुराम स्वयं नेपाल गए। वहां नरसिंह भगवान की मूर्ति बनवाई और लेकर आए। फिर नरसिंहगढ़ में भगवान की अनोखी प्रतिमा रखी गई। जानकारों की मानें तो नेपाल के बाद नरसिंहगढ़ में ही भगवान नरसिंह की अष्ठधातु की मूर्ति है।
जानिए भगवान नरसिंह को भगवान नरसिंह नारायण के अवतार माने जाते हैं। वैदिक ग्रंथों के अनुसार एक ऋषि हुआ करते थे कश्यप। कश्यप ऋषि की पत्नी दिति से दो पुत्र हुए। हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु। दोनों में असुरों के गुण थे। जब हिरण्याक्ष का आतंक बढ़ा तो उसे पृथ्वी पर भगवान विष्णु ने वराह रुप धारण कर वध किया था। भाई की मृत्यु से क्रोचित हिरण्यकशिपु ने अजेय होने के लिए कठोर तपस्या प्रारंभ कर दिया। सहस्त्र वर्षाें तक तप के बाद ब्रह्माजी खुश हुए। उन्होंने उससे वर मांगने को कहा। हिरण्यकशिपु ने मांगा कि उसे न कोई घर में मार सके न बाहर, न अस्त्र से न शस्त्र से, न दिन में न रात में, न मनुष्य मार सके न पशु, न आकाश में मारा जा सके न पृथ्वी पर। चालाकी से वर प्राप्त करने के बाद हिरण्यकशिपु अजेय हो गया। उसे कोई नहीं मार सकता था। तीनों लोकों पर उसका आतंक बढ़ गया। देवताओं को देवलोक छोड़ने की नौबत आ गई। ऐसे में एक बार फिर नारायण के पास सभी गए। नारायण ने नरसिंह अवतार लिया। इस अवतार में वह न मनुष्य हैं न सिंह। नरसिंह अवतार में उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध न घर में न बाहर किया बल्कि महल की चैखट पर किया। वध में हथियार का इस्तेमाल करने की बजाय अपने नाखूनों का प्रयोग किया। धरती या आकाश में नहीं बल्कि दोनों के बीच में उसे मारा जब दिन थी न रात यानि गोधूलि की बेला में। इस तरह भगवान नरसिंह के अवतार ने तीनों लोकों की सुरक्षा की।
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