पोस्टर लेकर काटते थे थिएटर्स के चक्कर मोर छइयां भुंईया बनाने वाले सतीश जैन बताते हैं, कहि देबे संदेस और घरद्वार नहीं चल पाई थी। इसलिए एग्जीबिटर्स को इस फिल्म के प्रति कोई उत्साह नहीं था। मैं पिताजी के साथ पोस्टर लेकर टॉकीजों के चक्कर काटा करता था। काफी मिन्नत करने के बाद रायपुर के बाबूलाल टॉकीज वाले 40 हजार रुपए साप्ताहिक रेंट में फिल्म लगाने राजी हुए। जबकि उस वक्त किराया 20 से 25 हजार साप्ताहिक हुआ करता था। बिलासपुर में 11 टॉकीज थी। कोई तैयार नहीं हुआ। हमने एक बंद पड़ी टॉकीज मनोहर को खुलवाकर लगाई। लेकिन जब फिल्म चल पड़ी तो हर कोई चाहने लगा कि उसके यहां लगाई जाए।
नागपुर में 50 दिन, मड़ई-मेले में भी कमाल साल 2008 ऐसा दौर था जब सीजी सिनेमा इंडस्ट्री हिचकोले खा रही थी। तीजा के लुगरा रिलीज के लिए तैयार थी लेकिन इसे लगाने कोई राजी नहीं था। जो लगाना चाहते थे वे हाई-फाई रेंट मांग रहे थे। डायरेक्टर जी. विजय ने बताया, हमने इसे नागपुर में रिलीज किया। वहां फिल्म ने 50 दिन पूरे किए। शुरुआती दिनों में ही जब फिल्म की रिपोर्ट अच्छी आई तो रायपुर व अन्य शहरों में मांग बढ़ने लगी। सबसे खास बात मेले-मड़ई में फिल्म ने बेहतर कलेक्शन किए। 2006 तक मेलों में फिल्में चलने का दौर थम गया था जिसे इस फिल्म ने जिंदा किया। विजय ने बताया कि लकी रंगशाही की बतौर डिस्ट्रीब्यूटर पहली फिल्म भी तीजा के लुगरा थी।