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भारत को डब्ल्यूएचओ से दूरी बनाने का सबसे अच्छा समय है

डॉ. अमिताव बनर्जी, महामारी विशेषज्ञ और चेयरमैन, यूनिवर्सल हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन, इंडिया

जयपुरDec 31, 2024 / 04:19 pm

Hemant Pandey

भारत के लिए भी यह सबसे अच्छा मौका है, जब वह डब्ल्यूएचओ से खुद को अलग कर ले और अपनी एक नई व्यवस्था बनाए। हालांकि, भारत डब्ल्यूएचओ को अमरीका जितना फंडिंग नहीं करता है, लेकिन इसकी गलत नीतियों से देश को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।

भारत के लिए भी यह सबसे अच्छा मौका है, जब वह डब्ल्यूएचओ से खुद को अलग कर ले और अपनी एक नई व्यवस्था बनाए। हालांकि, भारत डब्ल्यूएचओ को अमरीका जितना फंडिंग नहीं करता है, लेकिन इसकी गलत नीतियों से देश को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।

फार्मा कंपनियों के दबाव में डब्ल्यूएचओ वैक्सीन और दवाइयां थोप रहा है

कहा जा रहा है कि अमरीका में डॉनल्ड ट्रंप राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से अलग होने का निर्णय ले सकते हैं। ट्रंप अपने पिछले कार्यकाल में भी डब्ल्यूएचओ के खिलाफ थे। ट्रम्प का आरोप था कि डब्ल्यूएचओ को सबसे ज्यादा वित्तीय मदद अमरीका करता है, लेकिन यह चीन की ज्यादा सुनता है। इसे लेकर अमरीका में काफी डेटा तैयार किया गया है और वहां की सीनेट में कई सुनवाई भी हुई हैं। डब्ल्यूएचओ के खिलाफ जापान और इजराइल में भी आवाज उठ रही है। भारत के लिए भी यह सबसे अच्छा मौका है, जब वह डब्ल्यूएचओ से खुद को अलग कर ले और अपनी एक नई व्यवस्था बनाए। हालांकि, भारत डब्ल्यूएचओ को अमरीका जितना फंडिंग नहीं करता है, लेकिन इसकी गलत नीतियों से देश को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
डब्ल्यूएचओ का विरोध केवल बेवजह नहीं है। ज्यादातर विकासशील देशों का आरोप है कि डब्ल्यूएचओ अमीर देशों के हिसाब से ही योजना बनाता है। इसका स्पष्ट उदाहरण फार्मा कंपनियों का प्रभाव है। भारत पर डब्ल्यूएचओ अपनी नीतियां फार्मा कंपनियों के दबाव में थोपता है। इससे न केवल हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है, बल्कि भारत विकसित देशों की योजनाओं के लिए केवल प्रयोगशाला बनकर रह गया है। कुछ दिनों पहले टेक बिजनेस से फार्मा उद्योगपति बने और गेट्स फाउंडेशन के फाउंडर बिल गेट्स ने इस बारे में भी बयान दिया था। इस पर कुछ दिनों तक लोगों ने हंगामा किया, लेकिन हकीकत यह है कि जर्मनी के बाद डब्ल्यूएचओ को सबसे ज्यादा फंडिंग गेट्स फाउंडेशन से मिलती है। गेट्स फाउंडेशन का डब्ल्यूएचओ पर बहुत अधिक दबाव है। दूसरी तरफ, डब्ल्यूएचओ में अधिकतर पदाधिकारी वे ही होते हैं जिनका झुकाव फार्मा कंपनियों की ओर होता है। इसका उद्देश्य भी फार्मा को बढ़ावा देना है। इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि बीमारियों को महामारी घोषित किया जाए और इसके बदले वैक्सीन और दवाइयों का कारोबार शुरू किया जाए।
भारत को यह समझना चाहिए कि पिछले कुछ सालों में कई बीमारियों को महामारी घोषित किया गया। इनसे संबंधित अरबों रुपयों की वैक्सीन और दवाइयां भारत पर जबरन थोपी गईं। गौर करने वाली बात यह है कि गेट्स फाउंडेशन एक तरफ हमें स्वस्थ रहने के लिए प्रेरित करता है, तो दूसरी तरफ बिना जरूरत की दवाइयां और वैक्सीन भी जबरन लगवाता है, जिसके दोहरे-तीहरे नुकसान हैं। गेट्स फाउंडेशन, भारत सरकार की आईसीएमआर और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के साथ भी कई प्रोजेक्ट में काम कर रहा है। ये संस्थान देश में हेल्थ को लेकर एडवाइजरी जारी करती हैं। इसमें सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह की संस्थाएं मदद कर रही हैं, क्योंकि गेट्स फाउंडेशन इन संस्थाओं को भी मदद देकर चुप करवाता है। यह नए तरह का बिज़नेस बन गया है. आसान भाषा में समझें, तो पहले युद्ध को बढ़ावा देकर कंपनियां हथियार बेचती थीं, लेकिन अब इसको फार्मा कंपनियों ने समझ लिया है कि वैक्सीन और दवाइयों से ज्यादा कमाई हो रही है। इसलिए डब्ल्यूएचओ के माध्यम से बीमारियों को महामारी घोषित कराया जा रहा है। आम जनता को महंगे इलाज, दवाइयों और वैक्सीन का बोझ उठाना पड़ता है। पहले वैक्सीन निर्माण भारत सरकार के हाथों में था, लेकिन 90 के दशक के बाद यह प्राइवेट सेक्टर के हाथों में चला गया। फिर देश वैक्सीन की कीमतें आसमान छू रही हैं और इसको ऐसे प्रचारित किया जा रहा कि न लगवाने वाला डरा रहता है.
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बहुत खराब है क्योंकि लोगों में अभी जागरूकता की कमी है। देश में आजादी के समय से ही हेल्थ सेक्टर की अनदेखी की गई है। गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर कुछ भी नहीं है। नेता और अधिकारी भी डब्ल्यूएचओ और फार्मा कंपनियों से प्रेरित हैं। इसलिए देश में जो भी हेल्थ से जुडी योजनाएं बनाई जाती हैं, उसमें डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों का हवाला दिया जाता है। जबकि जरूरत है कि भारत में क्षेत्रीय आधार पर डेटा तैयार कर, उसके हिसाब से स्वास्थ्य सेवाओं की योजना बने. भारत को समझना चाहिए कि यहां रोज 1,400 लोग टीबी से मरते हैं। यह आंकड़ा सालाना 5 लाख के आसपास है। पिछले कुछ महीनों में टीबी की दवाइयां ही देश में नहीं थीं। हर साल रैबीज से 18,000 से अधिक और करीब 50,000 लोग सर्प दंश से मरते हैं। रोजाना 3-4 हजार नवजात बच्चों की मृत्यु होती है। अलग-अलग प्रकार के इन्फ्लुएंजा से हर साल लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती है। फिर भी, इन बीमारियों को भारत के हिसाब से महामारी नहीं माना जाता। जबकि कुछ लोगों की मृत्यु बर्ड फ्लू या मंकीपॉक्स से होने पर डब्ल्यूएचओ इन्हें महामारी घोषित कर देता है और इन्हें भारत पर थोप दिया जाता है। अमरीका की जनता अधिक जागरूक है। इसलिए वहां के लोग डब्ल्यूएचओ दूरी बनाना चाहते हैं. भारत की जनता को भी यह समझने की जरूरत है। यह समय है कि भारत फार्मा कंपनियों के प्रभाव में चल रहे डब्ल्यूएचओ से दूरी बनाए और अपने देश के लिए क्षेत्रीय आधार पर हेल्थ प्लान तैयार करे। ऐसा करने से भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का विकास संभव हो सकेगा।

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