सवाल यह उठता है कि ‘बीआरआइ’ के जरिए ओली नेपाल के हितों को साधने का प्रयास कर रहे हैं या चीन से बड़े-बड़े वादे कर देश पर भारी कर्ज लादने का बंदोबस्त कर रहे हैं? क्या ओली की आंखों पर चीनी रंग का इतना गहरा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के उदाहरण नहीं दिख रहे? नेपाल की तरफ से आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि चीन बीआरआइ फ्रेमवर्क एग्रीमेंट में शामिल होने का उद्देश्य है ट्रांस-हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क तैयार करना है ताकि नेपाल को बिजनेस और कनेक्टिविटी के एक रीजनल सेंटर के रूप में विकसित किया जा सके। तात्पर्य यह कि चीन, नेपाल को एक बहुत बड़ा सपना दिखा रहा है कि वह बीआरआइ के जरिए नेपाल की एशिया के दूसरे देशों के साथ कनेक्टिविटी को बढ़ाएगा जिससे उसका आर्थिक रूपांतरण (ट्रांसफार्मेशन) हो सके।
नेपाल भले ही इसे भारत पर निर्भरता को कम करने जैसा तर्क दे परंतु चीन इसके जरिए वहां भारतीय हितों को काउंटर करने में ही सफल नहीं हो रहा है बल्कि भारत-नेपाल सीमाओं तक पहुंच सुनिश्चित कर ले जा रहा है। हालांकि नेपाल की यह खिसकन उसी समय शुरू हो गई थी जब नेपाली सत्ता पर माओवाद ने कब्जा करने में सफलता पा ली थी। हालांकि अभी तक वह पूरी तरह से चीनी ‘ऋ ण जाल’ (डेट ट्रैप) में नहीं फंसा था। परंतु अब चीन बीआरआइ प्रोजेक्ट के जरिए नेपाल के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में ‘एड एंड इन्वेस्टमेंट’ की बात कर रहा है उससे यह स्पष्ट होता है कि चीनी ‘डेट ट्रैप डिप्लोमेसी’ (ऋण-जाल कूटनीति) का अगला शिकार वही होगा। दुनिया जानती है कि जो भी देश उसका कर्ज चुकाने में नाकाम होता है, उसकी रणनीतिक संपत्ति (स्ट्रेटेजिक प्रॉपर्टी) चीन अपने कब्जे में ले लेता है। श्रीलंका के हंबनटोटा, पाकिस्तान ग्वादर और मालदीव सहित ऐसे कई उदाहरण हैं जो चीनी डेट ट्रैप की कहानी बयां कर रहे हैं। अब देखना यह है कि नेपाल भी इन एशियाई देशों की राह चलेगा या बचकर निकलेगा? हालांकि बचने की संभावनाएं न के बराबर हैं।
चीन द्वारा विकासशील और अल्पविकसित देशों में किए जा रहे निवेश और दिए जा रहे ऋण ‘डेट ट्रैप डिप्लोमेसी’ का हिस्सा हैं। इसके तहत वह दो तरह से देता है। एक-छुपा हुआ ऋण (हिडेन डेट) और दूसरा-सीधे तौर पर दिए जाने वाला ऋ ण (डायरेक्ट डेट)। ध्यान रहे कि चीनी कर्ज का एक बड़ा हिस्सा छुपे हुए ऋण (हिडेन क्रेडिट्स) के रूप में होता है जिसे वह अलग-अलग चीनी इकाइयों से देता है। कर्ज वापस न देने पर चीन वहां अपना हक जताता है। ध्यान रहे कि नेपाल की चीन से बीआरआइ प्रोजेक्ट को लेकर 2017 से बातचीत चल रही थी। नेपाल इस प्रोजेक्ट के लिए कर्ज की जगह अनुदान (ग्रांट) की मांग कर रहा था। लेकिन चीनी पक्ष ने ‘नए फ्रेमवर्क’ में ‘ग्रांट’ को जगह नहीं दी बल्कि उसके स्थान पर ‘एड एंड टेक्निकल असिस्टेंस’ शब्द स्थापित कर दिया और प्रधानमंत्री ओली ने इसे ही स्वीकार कर लिया। सामान्यतया यह फ्रेमवर्क तीन वर्ष तक मान्य रहेगा लेकिन यदि कोई पक्ष इसे रद्द नहीं करता है तो यह आगे भी जारी रहेगा। वैसे नेपाल के वश में भी यह नहीं है कि वह इसे रद्द कर सके।
नेपाली थिंक टैंक-‘सेंटर फॉर सोशल इन्क्लूजन एंड फेडरलिज्म’ का कहना है कि बीआरआइ महज ‘इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट’ नहीं है, यह पश्चिम के दबदबे वाले ‘वल्र्ड ऑर्डर’ को चुनौती देने वाला प्रोजेक्ट भी है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। चीन बीजिंग और शंघाई में ऐसी वित्तीय संस्थाओं की स्थापना कर रहा है जो ‘सॉफ्ट पावर गेम’ में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। जैसे-जैसे वह इसमें आगे बढ़ेगा, उसकी अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय बाजारों को आच्छादित करेगी और उसकी सेना हिन्द-प्रशांत के रणनीतिक हितों को। फिलहाल देखना यह है कि चीन रेनमिनबी-मंडारिन द्वारा भारत-नेपाल के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कनेक्ट (अयोध्या-जनकपुर, लुम्बिनी-कुशीनगर) को किस सीमा तक प्रभावित करता है।