इन घोषणाओं के बाद सवाल ये उठता है कि बीजेपी से अलग होने के बाद शिरोमणि अकाली दल और बसपा का गठबंधन पंजाब की राजनीति पर कितना असर डालेगा। क्या बसपा के सहारे अकाली दल सत्ता में वापसीस कर पाएगी।
दिलचस्प मोड़ पर पंजाब की राजनीति यह चर्चा इसलिए अहम है कि इस बार पंजाब की राजनीति दिलचप्स मोड़ पर है। राज्य में फिलहाल बीजेपी की स्थिति मजबूत नहीं है। किसानों के अंदर पार्टी के लिए गुस्सा है तो वहीं उसके नेताओं का जगह-जगह विरोध भी हो रहा है। कांग्रेस भी आंतरिक गुटबाजी और सत्ता विरोधी लहर के कारण कमज़ोर ही नजर आती है। आम आदमी पार्टी में भी आंतरिक कलह है। पंजाब में दलित किसी के लिए कभी एकतरफा वोट बैंक नहीं रहा। यहां दलितों का वोट बैंक यहां बंटा हुआ है। वो सभी राजनीतिक दलों के पास है और इस बार भी किसी एक पार्टी के पक्ष में जाने की इसकी संभावना कम है। इसलिए कहा जा सकता है कि आने वाले चुनावों में कौन सा वर्ग किस पार्टी की तरफ झुकता है यह चुनावी मुद्दों से तय होगा। जहां तक पंजाब में वोट बैंक की बात है तो यहां पर राजनीति के केंद्र में सिख और दलित नेता रहे हैं। हां, हिंदू वोट बैंक रणनीतिक लिहाज से सबसे ज्यादा अहम हैं।
मायावती नहीं रख पाईं बसपा का जनाधार बरकरार 1992 में बसपा ने नौ विधानसभा सीटों पर अपने दम पर जीत हासिल की थी। उस चुनाव का शिरोमणी अकाली दल ने विरोध किया था लेकिन उसके बाद धीरे धीरे पंजाब की राजनीति से बसपा का सफ़ाया हो गया। फिलहाल बसपा पंजाब में कोई सीट नहीं जीत रही। कांशीराम के दौर में पंजाब में बसपा का जनाधार था। यह वही दौर था जब पंजाब में बसपा किंगमेकर थी और दोआब में उसका दबदबा था। लेकिन अब नहीं है। मायावती उसे बरकरार नहीं रख पाईं। यहां तक की बसपा का पंजाब की राजनीति में उसका अस्तित्व ही ख़त्म हो गया।
नहीं रही 1985 और 1996 वाली हैसियत पंजाब में 1985 में अकाली दल ने बगैर गठबंधन के अपने दम पर सरकार का गठन किया था। तब राजनीतिक समीकरण अलग थे। आज यह नहीं कहा जा सकता कि अकाली अपने स्तर पर चुनाव लड़ सकते हैं या नहीं। लेकिन पंजाब में चर्चा है कि वे अपने दम पर राज्य का चुनाव जीत सकते हैं। ऐसा इसलिए कि अकाली दल नौ दशकों तक पंथी पार्टी रहा, लेकिन 1996 में जब इसने पंजाबी और पंजाबियत का नारा दिया और हिंदू वोट बैंक को भी जोड़ने का प्रयास किया तो इसके वोट बैंक शिफ़्ट हो गए। पंथी राजनीति तो चलती रही लेकिन इससे पार्टी को नुकसान हुआ।
1996 में शिरोमणी अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन कर पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से 11 पर जीत हासिल की थी। शिरोमणी अकाली दल और बसपा जब 1996 में साथ लोकसभा चुनाव लड़े थे तब परिस्थितियां बहुत अलग थीं। पंजाब उग्रवाद से बाहर आ रहा था। यहां कांग्रेस विरोधी जनभावनाएं थीं। इसिलिए 1997 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 14 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। लेकिन अब स्थिति अलग है और चुनावी मुद्दे भी।
किसी और से गठबंधन मुश्किल बीजेपी के साथ गठबंधन टूटने के बाद ठोस वोट बैंक भी शिरोमणि अकाली दल से अलग हो गया। अकालियों ने हाल ही में बीजेपी से गठबंधन तोड़ा है लिहाजा वे फिलहाल उनसे गठबंधन नहीं कर सकते। ऐसा करने से शिरोमणि अकाली दल के ग्रामीण मतदाता टूट जाएंगे। कांग्रेस के साथ गठबंधन भी नहीं कर सकते क्योंकि दोनों पूरी तरह से अलग पार्टियां हैं। आम आदमी पार्टी पंजाब में स्वतंत्र रूप से अपना राजनीतिक आधार तलाशने में लगी है। इसलिए वो अकाली दल के साथ गठबंधन करना उचित नहीं समझेगी। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के काम काज से लगता है कि वे अपना बिखरा कुनबा समेट नहीं पाए हैं। वहीं शिरोमणी अकाली दल किसानों के मुद्दे पर कमजोर पड़ गई है। बादल परिवार ने खुले तौर पर कृषि क़ानूनों का समर्थन किया था। यही वजह है कि शिरोमणि अकाली दल ने बसपा से गठबंधन कर अपना दांव खेल दिया है। इसलिए ये भी माना जा रहा है कि गठबंधन शिरोमणि अकाली दल के लिए मजबूरी भी है।
शिरोमणि अकाली दल ने क्यों किया गठबंधन? दरअसल, इस पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अकाली दल को लगता है कि इस गठबंधन से उनके वोट शेयर में एक या दो फ़ीसद की वृद्धि हो सकती है। इसी वोट से पंजाब की राजनीति में उनकी वापसी हो सकती है। पंजाब में 33 फीसदी आबादी दलित है जो भारत में सबसे ज़्यादा है। लेकिन यह कभी एकतरफा वोट बैंक नहीं रहा। दलितों का वोट बैंक यहां बंटा हुआ है। कौन सा वर्ग किस पार्टी की तरफ झुकता है, राजनीतिक समीकरण उसी पर निर्भर होगा। गठबंधन को दोआब की कुछ सीटों से कुछ वोट मिलने का फायदा अकाली दल को हो सकता है क्योंकि वहां बसपा का कुछ जनाधार है।
सत्ता विरोधी लहर कांग्रेस की अहम चुनौती पंजाब कांग्रेस के भीतर भी एक दलित डिप्टी सीएम बनाने की चर्चा जोरों पर है। दलित वोटों को लेकर चल रही सियासत को देखते हुए मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी ऐलान किया है कि उनकी सरकार सभी योजनाओं का 30 फ़ीसदी पैसा दलित समुदाय की बेहतरी के लिए खर्च करेगी। लेकिन सभी जानते हैं कि कांग्रेस ने ऐसा सत्ता विरोधी लहर की वजह से किया है। हिंदू वोट बैंक दस साल बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़ा था। 2002 में इसी की बदौलत कांग्रेस सत्ता में आई थी। लेकिन 2007 में कैप्टन अमरिंदर अकालियों को नुकसान पहुंचाने के लिए पंथक एजेंडे पर चल पड़े। इससे नाराज होकर शहरी हिंदू पूरी तरह भाजपा के पाले में चले गए थे। 2012 में भी इन्होंने अकाली-भाजपा का ही साथ दिया। लेकिन 2017 में आम आदमी पार्टी की कट्टरपंथियों से नजदीकी की चर्चाओं के बाद यह वोट बैंक पूरी तरह कांग्रेस के साथ हो गया।