जोधपुर पत्थर से निर्मित पैरोनामा में आऊवा ठाकुर कुशालसिंह चांपावत की प्रतिमा स्थापित की गई है। चांपावत के अदम्य साहस व वीरता की कहानियों का वर्णन किया हुआ है। अंग्रेजों से लोहा लेने वाले राजपुताना के ठिकानेदारों का भी सचित्र वर्णन दर्शाया गया जिसमें गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह, आलनियावास ठाकुर अजीतसिंह, कोठारिया मेवाड़ ठाकुर रावत जोधसिंह चौहान, एरिनपुरा, खेजड़ला, सलूम्बर, रूपनगर, लहसानी, लाम्बिया, बांता, भीमालिया व बगड़ी के ठाकुरों ने 1857 की स्वतत्रंता संग्राम में आऊवा ठाकुर कुशालसिंह चांपावत का साथ देकर ब्रिटिश सत्ता को जड़ से उखाड़ फैकने का निश्चत किया था।
1857 की लड़ाई में ठाकुर कुशाल सिंह के नेतृत्व में आजादी का बिगुल बजा। आऊवा से गांव 1857 में ब्रिटिश सेना द्वारा आऊवा किले की घेराबंदी के लिए जाना जाता है। क्योंकि ठाकुर कुशाल सिंह के नेतृत्व में पाली क्षेत्र के विभिन्न ठाकुरों का सामना ब्रिटिश सेना से हुआ। आऊवा किला पूरी तरह ब्रिटिश सेना से घिरा हुआ था और संघर्ष कई दिनों तक चला। जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट जब जोधपुर की सेना के साथ आऊवा की ओर बढ़ा तब ठाकुर कुशाल सिंह ने मॉक मेंसन का सर काट आऊवा की प्राचीर पर टांग दिया था। जोधपुर की सेना को एक बार फिर हार का मुंह देखना पड़ा था। ब्रिटिश सेना आग बबूला होकर पुन: आऊवा की ओर बढ़ी। तोपों और बंदूकों से सुरंगों की सहायता से आऊवा को ध्वस्त किया गया। क्रांतिवीरों ने वीरता से अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। संख्या में कई गुना ज्यादा अंग्रेज सेना ने मंदिरों को भी ध्वस्त किया। ठाकुर कुशाल सिंह और क्रांतिकारियों की आराध्य देवी मां सुगाली की प्रतिमा को भी खंडित कर दिया था।
-1857 की क्रांति में राजपूताने में अंग्रेजों को सर्वाधिक प्रतिरोध का सामना आऊवा के ठाकुर कुशाल सिंह चांपावत से करना पड़ा।
-आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह चांपावत की क्रांतिकारी सेना व जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह की सेना के बीच हुआ जिसमें आऊवा के सैनिक विजय रहे।
-दूसरे युद्ध में आऊवा की सेना ने काला-गोरा युद्ध ( चेलावास युद्ध) 18 सितम्बर 1857 में ब्रिटिश सेना और जोधपुर रियासत की सम्मिलित सेनाओं को परास्त किया ।
-काला गोरा युद्ध में एजेंट टू गवर्नर जनरल ब्रिटिश सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस एवं जोधपुर पोलिटिकल एजेंट मैकमेसन ने भी भाग लिया था ।
– काला गोरा युद्ध में मॉक मेंसन मारा गया। क्रांतिकारियों ने उसके कटे सिर को आऊवा दुर्ग के प्राचीर पर लटका दिया था।
-दोनों सेनाओं के मध्य 13 सितम्बर 1857 को बिठौड़ा में युद्ध हुआ। जिसमें कुशालसिंह चांपावत विजयी रहे।