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कोलीवाड़ा में बने मंदिर व रथ की मांग सात समंदर पार

– शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है गांव : सुथार परिवार के सदस्य हाथों से सजाते मंदिर व रथ- शिल्प वैभव से पूर्ण कोलीवाड़ा में बने मंदिर व रथ की मांग सात समंदर पार

पालीSep 16, 2019 / 05:00 pm

Rajendra Singh Rathore

कोलीवाड़ा में बने मंदिर व रथ की मांग सात समंदर पार

कोलीवाड़ा में बने मंदिर व रथ की मांग सात समंदर पार

सुमेरपुर। सुमेरपुर शहर से सटा छोट गांव में निवास कर रहे सुथार समाज के कारीगरों के हाथ से बने रथ व मंदिर हजारों किलोमीटर दूर विदेशों में जाते हैं। आजादी से पूर्व पुरखों द्वारा छोड़ी गई विरासत को अब युवा वर्ग संभाले हुए हैं। सुमेरपुर उपखण्ड का कोलीवाड़ा में प्रवेश करते ही किसी शहर के औद्योगिक क्षेत्र की तरह नजर आता हैं। यहां सुथार समाज के करीब सौ घर हैं। अधिकांश परिवार शिल्प कला के कार्य में जुटे हुए हैं।
कोलीवाडा। में पिछले तीन दशक से कार्य में जुटे रमेशचन्द्र सुथार व लक्ष्मण सुथार ने बताया कि कोलीवाडा में मूर्तिकला, मंदिरों की सजावट, विशेष रथ, सिंहासन, मुकुट, कवच समेत कई प्रकार की सामग्री का निर्माण होता है। प्रवीणकुमार सुथार को राजस्थान का श्रेष्ठ शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है। वर्ष 2004-5 में जयपुर में आयोजित प्रदेश स्तरीय समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने उन्हें श्रेष्ठ शिल्पकार सम्मान दिया था। नैरोबी, सिगंापुर, दुबई आदि देशों में यहा के मंदिर आज भी गांव की सुगंध फैला रहे हैं। पूनमचंद, डूंगाराम, रताराम व वीशाराम सुथार ने इस कार्य की शुरुआत की थी। इनके हाथों के हुनर को देखकर अंग्रेज भी दांतो तले अंगुली दबाने को विवश हो गए थे। कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल में भी कोलीवाड़ा के शिल्पकारों की याद ताजा करती है। गांव के खेताराम, खुमाराम, गोविंदराम, जगदीशभाई, भवानीशंकर, रमेशचन्द्र, नारायणलाल, मोहनलाल के नेतृत्व में दिनरात कारीगर रथ व मंदिर समेत विभिन्न सामग्री को तैयार करने में जुटे हैं।
पूरे विश्व में कोलीवाड़ा की पहचान
कोलीवाड़ा के जयंतीलाल सुथार बताते हैं कि कोलीवाडा में उनके कारखाने में वर्ष में लगभग 10-15 स्वर्ण पॉलिश से निर्मित रथ बनाए जाते हैं। जैन धर्म के देश के किसी भी भाग में होने वाले बड़े धार्मिक कार्यक्रम के लिए उनके यहा से निर्मित रथ ही उपयोग में लिए जाते हैं। यहां पर मुम्बई समेत अन्य प्रदेशों से विशेष प्रशिक्षित कारीगरों को बुलाया जाता है। ये सोने की नक्काशी कर रथ को आकर्षक रूप देते हैं। दक्षित भारत समेत दिल्ली से भी ऑर्डर आते हैं। वे बताते हैं कि उनके पुरखे इस कार्य में लगे थे। रियासतकाल में राजा-महाराजाओं के रथ का निर्माण उनके पूर्वज पूनमचंद सुथार ही करते थे। उनके बाद अंग्रेजों के आने पर उनके लिए विशेष रूप से तांगे बनाए जाते थे।
अंगुलियों के हुनर से जीवंत कला, कद्रदानों के अभाव और सरकारी उपेक्षा के चलते सिमटी कला
सुई से चमकीले धागों की करिश्माई कलाकारी है जरदोजी
बगड़ी नगर. चमकीले धागों को सुई में पिरोकर कपड़े पर करिश्मा बुनने की कला है जरदोजी। जरदोजी का काम करने वाले कारीगर अंगुलियों के हुनर से सूट, साडिय़ां व ओढऩे को रूहदार कर देते हैं। मुगलकालीन ये कला अकबर के समय में खूब पनपी। अब लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, आगरा, कश्मीर व अजमेर में खासी प्रचलित है।
कारीगरी के बेमिसाल शिल्प से परिधान को सजाने ओर संवारने वाली इस कला से आजीविका चलाने वाले कलाकार बगड़ी नगर में भी हैं। सरकारी उपेक्षा के चलते ये कलाकार अब मुफलिसी के शिकार हो रहे हैं। कलाकारों के हिस्से में दो जून की रोटी ही बमुश्किल होती है। बिचौलिये इनकी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा हड़प लेते हैं। जरदोजी में रेशम में काम, करदाना मोती, सादी कसब, जरी, वायर, कांच कुन्दन एवं अन्य तरह के काम किए जाते हैं। वर्तमान में कस्बे के दो तीन परिवार ही इस कार्य से जुड़े हुए हैं। मेहनत ज्यादा और कमाई कम होने के कारण लोगों का रोजगार से मोहभंग हो गया है। परिवार के बच्चे हाथों में कलम किताब की जगह सूई, धागा ओर मोती लिए केंद्रों पर काम करते हैं। परिवार वाले आर्थिक तंगी की वजह से बच्चों को यह हुनर सिखाते हैं, ताकि मेहनत करके कुछ रकम घर लाने लगे। कारीगर कौशल्या जीनगर, मोहनी जीनगर व गायत्री जीनगर का कहना है कि सरकार के संरक्षण के अभाव में यह कला दम तोड़ रही है। सरकार उद्योग का दर्जा दे तो जरूर राहत मिल सकती है।
घंटों तक काम
जरदोजी कारीगरों को दिन में कई घंटों काम करना पड़ता है। तीन कारीगर मिलकर एक ओढऩे को तैयार करते हैं। दो दिन तक मेहनत कर दो सौ रुपए से ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती। कारीगरी का मेटेरियल का बाजार नहीं होने के कारण खरीदारी के लिए जोधपुर जाना पड़ता है। इसमें समय और धन बर्बाद होता है। मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम होने के कारण अब कारीगरों मोहभंग हो गया है।
मशीनीकरण से हुआ नुकसान
कम्प्यूटराइज्ड जमाने में सबसे ज्यादा नुकसान जरदोजी कारीगरों को हुआ। मशीनों से तीन दिन का काम सात-आठ घंटों में ही होने लग गया है। मार्केट में हाथ से बनी ओढऩी मंहगे दाम में मिलने के कारण लोग नहीं खरीदते। इससे भी इसकी मांग कम हो रही है।

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