scriptहुई है वही जो…. | Who is the most powerful of the three pillars of democracy | Patrika News
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हुई है वही जो….

लोकतंत्र के तीन स्तंभों में सबसे शक्तिशाली कौन? विधायिका, न्यायपालिका या कार्यपालिका? भले ही बाकी दो स्तंभ इस बारे में कुछ दावा करें न करें, कार्यपालिका अपने आप को स्वयंभू सर्वशक्तिशाली प्रकट करने का कोई मौका नहीं छोड़ती।

Aug 19, 2016 / 03:20 pm

Kamlesh Sharma

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लोकतंत्र के तीन स्तंभों में सबसे शक्तिशाली कौन? विधायिका, न्यायपालिका या कार्यपालिका? भले ही बाकी दो स्तंभ इस बारे में कुछ दावा करें न करें, कार्यपालिका अपने आप को स्वयंभू सर्वशक्तिशाली प्रकट करने का कोई मौका नहीं छोड़ती।
राजस्थान की कार्यपालिका ने पिछले पांच वर्ष में बने पांच कानूनों को ठंडे बस्ते में डाल कर एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसे न विधायिका की परवाह है और न न्यायपालिका की। भले ही विधायिका कितने ही कानून बना दे, अदालतें कितने ही फैसले कर दे-होगा तो वही जो अफसरशाही चाहेगी! 
आश्चर्य की बात यह है कि गजट सूचना जारी होने के बाद भी कानून लागू नहीं हो रहे। किसी में नियम नहीं बने तो किसी में कार्रवाई के लिए लोग या स्थान चिन्हित नहीं हुए। हों भी कैसे, पांच में से दो कानून तो ऐसे हैं, जिसकी आंच सीधे-सीधे अफसर बिरादरी पर आती है। लोक सेवाओं के प्रदान की गारंटी संबंधी कानून को जारी हुए सवा दो साल गुजर चुके। इसके तहत निश्चित समय सीमा में सेवा नहीं मिले, तो शिकायतकर्ता आयोग में जा सकता है। 
इस मामले में आयोग का गठन ही नहीं हो रहा। अब कर लो शिकायत अफसरों की। वर्तमान सरकार ने सुशासन के लिए अलग कानून लाने की घोषणा की थी। यह घोषणा भी आज तक धूल चाट रही है। ऐसा ही दूसरा कानून है विशेष न्यायालय कानून। इस कानून के तहत भ्रष्ट लोक सेवकों की सम्पत्ति स्कूल, कॉलेज आदि के उपयोग में ली जा सकती है। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ऐसे 9 मामले सरकार को भेज भी चुका है, पर अब तक एक भी मामले में सम्पत्ति चिह्नित तक नहीं हुई। 
थड़ी-ठेले वालों के लिए पुनर्वास संबंधी कानून का भी यही हश्र हुआ। इस कानून को आधा-अधूरा लागू किया। थड़ी-ठेले वाले कहां नहीं खड़े हो सकते, यह तो चिन्हित कर दिया, लेकिन उनके पुनर्वास का मामला लटका दिया गया। अब ये गरीब पुलिस और नगर निगम के बीच फुटबाल बने हुए हैं। रोज अंटी ढीली करनी पड़ती है, सो अलग!
ऐसे ही कई मौके आए जब अदालतों ने फैसलों की अनुपालना नहीं होने पर अफसरों को लताड़ पिलाई। लेकिन ज्यादातर अफसर चिकने घड़े बन चुके हैं। वे करते वही हैं जो उनको रास आए।
निजी क्षेत्र में परिणाम नहीं देने वाले अधिकारियों को एक दिन भी मोहलत नहीं दी जाती, पर सरकारी क्षेत्र में परिणाम से ज्यादा जी-हुजूरी मायने रखती है। ऐसे में सरकार सुशासन, विकास, जनसेवा जैसे कितने ही नारे गढ़ ले, होगा तो वही जो ‘अफसर रचि राखा।’ 

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