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विज्ञान वार्ता : भावतंत्र – शरीर का संचालक

प्रत्येक व्यक्ति जीवन के साथ एक लक्ष्य लेकर आता है। प्रारब्ध के रूप में पिछले कर्मों के फल भी उसके साथ आते हैं। हर लक्ष्य की प्राप्ति में इच्छा-तप और श्रमरूपी साधना आवश्यक होती है।

Jan 16, 2021 / 07:05 am

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

प्रत्येक व्यक्ति जीवन के साथ एक लक्ष्य लेकर आता है। प्रारब्ध के रूप में पिछले कर्मों के फल भी उसके साथ आते हैं। हर लक्ष्य की प्राप्ति में इच्छा-तप और श्रमरूपी साधना आवश्यक होती है। साधना के माध्यम से वह नारायण भी बन सकता है और उसके अभाव में वह अपने लक्ष्य से च्युत भी हो सकता है। कृष्ण ने इसलिए कहा कि ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते।’ यह अभ्यास हर युग में, हर मानव के लिए, हर कार्य में आवश्यक है। इसका कारण यह है कि हमारे जीवन का संचालन प्रकृति कर रही है। यह प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है। अत: हमारे सभी क्रिया-कलाप, हाव-भाव निरन्तर बदलते रहते हैं। जीवन से हमारा परिचय शरीर के माध्यम से होता है। पंचभूतों से निर्मित हमारे शरीर के तीन धरातल हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। कारण शरीर आत्मा है, स्थूल शरीर उसकी अभिव्यक्ति है। सूक्ष्म शरीर इन दोनों के मध्य सेतु का कार्य करता है। अत: यही गति युक्त शरीर है जो प्राणमय कहा जाता है। शरीर को संचालित करने की समस्त शक्ति इसी में निहित रहती है।
शरीर भोजन से चलता है। भोजन से रस बनता है। रस से रक्त और फिर आगे के धातु अर्थात् मांस, मेद, मज्जा, अस्थि और शुक्र बनते हैं। शुक्र से ओज बनता है जो हमारे मन का पोषण करता है। पाचन कमजोर हो तो रस नहीं बनेगा। रस और रक्त न बने तो आगे के सभी धातु कमजोर पड़ जाते हैं। मन चूंकि अन्त में बनता है इसलिए हर धातु में विकार का असर मन पर भी पड़ता है। ओज यानी हमारा तेज भी प्रभावित होता है। यह ओज हमारा आभामण्डल यानी ‘औरा’ कहलाता है।
पाचन क्रिया से शरीर की सारी रासायनिक क्रियाएं जुड़ी हैं। ये रसायन हमारी अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से निकलते हैं। अंग्रेजी में इन्हें ‘एण्डोक्राइन ग्लैण्ड्स’ कहते हैं। हमारी भाव क्रियाओं से इन पर प्रभाव पड़ता है। क्रोध होने पर हमारी भूख बन्द हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है। भय और प्रसन्नता आदि भावों से भी शरीर में होने वाले प्रभावों को महसूस कर सकते हैं। इन ग्रन्थियों का नियंत्रण मस्तिष्क से होता है। हम स्थूल ग्रन्थियों से निकलने वाले रसायनों को समझ सकते हैं। किन्तु मस्तिष्क से इन रसायनों के आदान-प्रदान को नहीं समझ पाते। मस्तिष्क का नियंत्रण विभिन्न ऊर्जाओं से होता है। ये ऊर्जाएं मन से, हमारे विचारों से प्राप्त होती हैं। मन के भावों से विचार बदलते हैं। मन पर इच्छा, स्मृति और कल्पनाओं का प्रभाव पड़ता है। यह हमारे विचारों को प्रभावित करता है। यह सब सूक्ष्म ऊर्जा का, सूक्ष्म शरीर का, प्राणों का कार्य क्षेत्र है। इसलिए कृष्ण ने भी मस्तिष्क को ही साधना का प्रधान अंग माना है।
‘सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मन:प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥’ (गीता 8/12)

शरीर में प्राण-अपान-समान-उदान-व्यान नाम के प्राण स्थूल प्राण हैं। किन्तु इनका निर्माण भी सूक्ष्म प्राणों से होता है। ये सूक्ष्म प्राण ही हमारे मस्तिष्क का संचालन करते हैं।
शरीर में कई अन्त:स्रावी ग्रन्थियां हैं। ये ग्रन्थियां ऊर्जा संचालन केन्द्र के रूप में हैं तो रसायन संचालन केन्द्र के रूप में भी हैं। ये ग्रन्थियां क्षेत्रीय केन्द्रों के रूप में कार्य करती हैं और सामूहिक रूप में भी। हम स्थूल शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ अनुभव करते हैं वह सूक्ष्म में संचित होता है। हमारी भाव क्रियाओं का धरातल कारण शरीर है और वही हमारे स्थूल जीवन का मुख्य नियंत्रक है। शरीर विज्ञान में सात अन्त:स्रावी ग्रन्थियां मुख्य हैं। योगदर्शन में सूक्ष्म धरातल पर विभिन्न ‘चक्र’ ऊर्जा केन्द्रों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
प्राणवान् पदार्थ को सत् कहते हैं, स्थूल है। किन्तु प्राण में कोई अन्य प्राण नहीं होने से वह असत् कहलाता है, सूक्ष्म है। प्राणन् और गति का समान अर्थ है। ऋषि शब्द गति का वाचक होने से प्राण कहलाता है। ऋषि प्राण ही आगे देव, असुर, गन्धर्व आदि प्राणों में अवतरित होते हैं। अत: शरीर के संचालन में प्राणों की प्रमुख भूमिका होती है। शरीर की सिर, उर, उदर तथा वस्ति इन चारों गुहाओं में सात-सात प्राण सात-सात अवयवों में कार्य करते हैं। तीन युगल रूप में और एक अकेला। युगल अवयव में एक पोजिटिव, एक नेगटिव होता है।
सिर में शिरोगुहा है। इसमें दो कान, दो आंख, नाक के दोनों छेद युगल रूप में और मुंह अकेला है। इनको शक्ति मुख्य प्राण देता है। इसकी प्रतिष्ठा (केन्द्र) भृकुटी होती है। यह ज्ञान का क्षेत्र है। छाती में उरोगुहा है। इसमें दो हाथ, दो फेफड़े, दो स्तन और हृदय है। इनका केन्द्र कण्ठ में होता है। यह पराक्रम का गढ़ है। पेट में उदर गुहा है। इसमें यकृत-प्लीहा, आमाशय-अग्न्याशय (पक्वाशय) दो वृक्क या गुर्दे और नाभि हैं। इनका केन्द्र प्राण हृदय में है। यह अन्न ग्रहण और विभाजन का शक्ति केन्द्र है। नाभि से नीचे वस्तिगुहा है। इसमें दो पैर, वीर्य और मूत्रद्वार, दो अण्डकोश और गुदा है। इनका प्राण केन्द्र नाभि में है। यह विसर्जन और उत्सर्ग का क्षेत्र है।
अन्त:स्रावी ग्रन्थियों अथवा चक्रों की शरीर में स्थिति कपाल से रीढ़ के अन्तिम छोर तक है। हमारे सभी नियंत्रण केन्द्र ऊर्जा से, सूक्ष्म स्तर पर संचालित होते हैं। रसायन ‘एण्डोक्राइन ग्लैण्ड्स’ में बनते हैं किन्तु उनका नियंत्रण भी ऊर्जा के क्षेत्र का ही काम है। योगशास्त्र में चक्रों के माध्यम से अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के सन्तुलन की बात कही गई है। ये चक्र ब्रह्माण्ड से यानी अपने वातावरण से ऊर्जाएं ग्रहण करके शरीर संचालन में उन ऊर्जाओं के उपयुक्त उपयोग के केन्द्र हैं।
हमारे रीढ़ के अन्तिम छोर पर ‘एड्रिनल’ या अधिवृक्क ग्रन्थि है। यहां चक्र का नाम मूलाधार है। यह ग्रन्थि विसर्जन तन्त्र से जुड़ी हैं। रीढ़ स्तम्भ, गुर्दे और पैरों की सारी कार्यविधि का जिम्मा है। नाभि और मूलाधार के बीच के स्थान पेडू में ‘गोनाड’ या जनन ग्रन्थि है। यहां स्वाधिष्ठान चक्र है। यह ग्रन्थि प्रजनन तन्त्र से जुड़ी है। मल-मूत्र अंग, गुर्दे और प्रजनन अंग की कार्यप्रणाली का उत्तरदायी है। नाभि क्षेत्र में ‘पेन्क्रियाज’ या अग्न्याशय ग्रन्थि है। यहां मणिपूर चक्र है। यह पाचन तन्त्र से जुड़ी ग्रन्थि है। पाचन संस्थान, यकृत, प्लीहा या तिल्ली, आंतों तथा नाड़ी तंत्र के कार्य इससे संचालित हैं।
हृदय क्षेत्र में ‘थाइमस’ या बाल्यग्रन्थि है। यहां अनाहत चक्र है। यह ग्रन्थि रक्त संचार तंत्र से जुड़ी है। हृदय, फेफड़े, भुजाएं, रक्त और रक्त संचार प्रणाली का संचालन-नियंत्रण इससे जुड़ा होता है। कण्ठ में ‘थायरॉयड’ या गलग्रन्थि है। यह श्वसन तंत्र से जुड़ी है। यहां विशुद्धि चक्र है। नाक, कान, गला, मुंह और स्वरतंत्र का जिम्मा है। भौहों के बीच ‘पिट्यूटरी’ यानी पीयूष ग्रन्थि है। यहां आज्ञाचक्र है। यह बोध का केन्द्र है। निचला मस्तिष्क और स्नायु तंत्र इससे संचालित होता है। कपाल में ‘पीनियल ग्लैण्ड’ है। यहां सहस्रार चक्र है। ‘पीनियल ग्रन्थि’ उपरि मस्तिष्क और दाहिनी आंख का नियंत्रक है।
ये सभी चक्र स्थूल शरीर में रहते हैं। जब हम अन्तर्मुखी होते हैं और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते हैं तभी हम इनकी गतिविधियों को समझ पाते हैं। इनकी साधना से मानव मानसिक स्वास्थ्य और सुदृढ़ता प्राप्त कर सकते हैं।

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