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किसानों के विरोध के कारण क्या तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाना चाहिए?

पत्रिकायन में सवाल पूछा गया था। पाठकों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आईं, पेश हैं चुनिंदा प्रतिक्रियाएं।

May 27, 2021 / 06:36 pm

Gyan Chand Patni

किसानों के विरोध के कारण क्या तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाना चाहिए?

किसानों के विरोध के कारण क्या तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाना चाहिए?

थोपे गए हैं कृषि कानून
तीनों कृषि कानूनों के विरोध में किसान छह महीने से धरने पर बैठे हुए हैं। विषम परिस्थितियों के कारण अनेक किसानों की मौत भी हो चुकी है, लेकिन संवेदनहीन सरकार इस तरफ ध्यान ही नहीं दे रही। सरकार किसानों पर विपक्ष के बहकावे में आने का झूठा आरोप लगाकर आंदोलन को बदनाम करने का प्रयास कर रही है। बिना किसी विचार-विमर्श के आनन – फानन में संसद द्वारा पास किए गए ये तीनों कृषि कानून किसान विरोधी हैं। ये कानून धीरे-धीरे मंडियों को समाप्त कर कॉरपोरेट घरानों को मनमानी दर पर उपज को खरीदने की छूट देते हैं। कृषि – सुधार के नाम पर सरकार, किसानों को निजी बाजार के हवाले करना चाहती है। सरकार का यह कदम किसानों को बड़ी कंपनियों का बंधुआ मजदूर बनाकर रख देगा। गोदामों में बंद अनाज की कीमत सरकार नहीं पूंजीपति तय करेंगे। ये कानून जबरदस्ती किसानों के ऊपर थोपे गए हैं। अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाकर सरकार को तीनों कृषि कानून यथाशीघ्र वापस लेने चाहिए।
-सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’, कोटा
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प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए सरकार
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आंधी, ओला, शीतलहर, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसानों की फसल बर्बादी का कारण बनती रही हैं। अब तीनों कृषि कानून किसानों के हितों पर कुठाराघात करने वाले हैं। ये कानून पूंजीपतियों और कॉरपोरेट जगत को फायदा पहुंचाएंगे। किसान अपने ही खेतों में मजदूर बन जाएंगे। मंडियों की समाप्ति और किसानों को अपनी फसलों का समर्थन मूल्य न मिलने की आशंका से किसानों में रोष है। सरकार को अड़ियल रुख त्यागकर तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की पहल करनी चाहिए। किसानों का विरोध वाजिब है। सरकार इस मुद्दे को प्रतिष्ठा का सवाल न बनाए। किसानों के हित में कानूनों को रद्द करे। सभी राजनीतिक दलों को साथ लेकर फिर से नए कृषि कानून बनाए।
-शिवजी लाल मीना, जयपुर
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किसानों को विश्वास में ले सरकार
संसद में पारित हुए तीन कृषि कानूनों का मुख्य उद्देश्य कृषि विपणन प्रणाली में आवश्यक सुधार लाना है। किसानों को दलालों तथा बिचौलियों से छुटकारा दिलाना और उनकी विपणन क्षमता में इजाफा करना है। चूंकि कृषि राज्यों का विषय है। अत: सरकार द्वारा इन विधेयकों को पहले अध्यादेश, फिर संसद में बिना चर्चा किए, किसानों और राज्यों की राय जाने बिना पारित करवाना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा संघवाद पर प्रहार है। इसीलिए इनका विरोध हो रहा है। सरकार इन सुधारों को लागू करने के लिए कदम बढ़ा चुकी है, तो उसे किसानों को विश्वास में लेना चाहिए।
-कनिष्क माथुर, जयपुर
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स्पष्टता का अभाव
एक देश एक मंडी की तर्ज पर,आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक 1955 में सुधार कर सरकार जो नए विधेयक लाई है, उनमें स्पष्टता का अभाव साफ दिखाई दे रहा है। एमएसपी मूल्य तथा सरकारी मंडियों की उपलब्धता पर संदेह व्याप्त है। साथ ही स्टॉक लिमिट हटा देने से कालाबाजारी तथा जमाखोरी में भी वृद्धि हो सकती है। इस विधेयक से राज्य सरकारों को नुकसान तथा निजी क्षेत्र व कॉरपोरेट घरानों को अधिक मुनाफा भी हो सकता है। सरकार को इस अधिनियम में और अधिक स्पष्टता तथा मजबूत संस्थागत ढांचा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि सरकार चाहती है कि किसानों की आय दुगनी हो तो इसके लिए वह स्वामीनाथन की सिफारिशों को भी लागू कर सकती थी।
-एकता शर्मा, गरियाबंद, छत्तीसगढ़
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खत्म हो जाएंगी मंडियां
हर बदलाव को सुधार नहीं कहा जा सकता है। कुछ परिवर्तन विध्वंस का कारण भी बन सकते हैं। देश ऐतिहासिक सुधार के नाम पर नोटबंदी, जीएसटी के प्रभावों को झेल चुका है और अब किसानों की बारी है। सरकार ने कानून के जरिए मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है। बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं। यही खुली छूट आने वाले वक्त में मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी।
-डॉ.अजिता शर्मा, उदयपुर
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किसानों को स्वीकार नहीं नए कानून
जिनके फायदे के लिए सरकार कानून बनाने का दावा सरकार कर रही है, उन्हीं किसानों द्वारा किया जा रहा आन्दोलन इस बात को प्रमाणित करता है कि ये कानून उन्हें स्वीकार नहीं। कैसी विडम्बना है कि सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। सरकार की हठधर्मिता से किसी का भला नहीं हो रहा है। बेहतर तो यह है कि सरकार शीघ्र तीनों कृषि कानूनों को रद्द करके अकारण उत्पन्न हुई इस समस्या से सभी को निजात दिलाए।
अशोक कुमार जैन, कोटा
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सरकार जल्द आंदोलन खत्म कराए
किसानों का आंदोलन कृषि कानूनों के खिलाफ असंतोष जाहिर करता है। कृषि राज्य सूची का विषय है। ऐसे मे भारत सरकार द्वारा कानूनों के निर्माण से पूर्व राज्य सरकारों एवं किसान संगठनों से सलाह मशविरा करना चाहिए था। सरकार को कृषि कानूनों में स्पष्ट रूप से कृषि उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी देनी चाहिए थी। वर्तमान मे देश का अन्नदाता फसल का उचित दाम नहीं मिलने एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं से बदहाल है। सरकार की संवेदनहीनता के कारण देश के विभिन्न किसान संगठन 6 माह से आन्दोलनरत हैं। सरकार को किसानों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना चाहिए। सरकार कानूनों की वापसी को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल ना बनाए। महामारी की स्थिति सामान्य होने के बाद सरकार किसानों को विश्वास में लेकर नए सिरे से पुन: कृषि कानून बनाए।
-तेजपाल गुर्जर, हाथीदेह, श्रीमाधोपुर
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सरकार तीनों कृषि कानून वापिस ले
पिछले छह माह से किसान तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इन कृषि कानूनों से किसानों की जमीन पर औद्योगिक घरानों का कब्जा हो जाएगा, कृषि मंडिया खत्म हो जाएंगी, स्टॉक सीमा खत्म करने पर काला बाजारी ज्यादा होगी, उपभोक्ताओं को महंगाई की मार झेलनी पड़ेगी। इन दुष्परिणामों से बचने के लिए सरकार को अपनी हठधर्मिता को छोड़कर कर किसानों और उपभोक्ताओं का हित देखते हुए इन तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लेना चाहिए।
– राजेन्द्र बांगड़ा, जायल, नागौर
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किसानों की बात सुने सरकार
किसान लम्बे समय से इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में उनकी बात को सुन कर, समस्या का हल निकाला जाए। हो सकता है सरकार की नजर में ये तीनों कानून अच्छे हों, किसानों के लिए हितकर हों, लेकिन किसानों की आशंकाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रजातंत्र की साख को कायम रख सरकार को हठ को छोडऩा चाहिए और किसानों की बात सुननी चाहिए।
-छगनलाल व्यास, खण्डप, बाड़मेर
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रद्द नहीं, संशोधन करें
विभिन्न कृषि सुधार समितियों के परामर्श से ये तीन नए कृषि कानून बनाए गए। यदि ये कानून भविष्य में लाभकारी नहीं होते तो इनमें संशोधन किए जा सकते हैं। किसान आंदोलन के गर्भ में राजनीतिक विरोध ज्यादा तथा कृषि सुधार की भावना कम दिखाई देने लगी। अत: तीनों कानूनों को रद्द करना उचित नहीं।
-नरेन्द्र कुमार शर्मा, मालवीय नगर जयपुर
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किसानों के हित में हैं कानून
तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर पिछले काफी समय से किसान आंदोलन चल रहा है। रास्ते जाम करके आम जनता को परेशान करने वाले ये किसान नहीं हंै। ये कानून किसानों के हित में हंै।
-लक्ष्मण सिंह राव, रानीगाव, बाड़मेर
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वापस लिए जाएं कानून
एक विशाल कृषि प्रधान देश में किसानों के आंदोलन से साफ है कि उनके पेट और उनके अधिकारों पर चोट हुई है। ये काले कानून यकीनन वापस लिए जाने चाहिए।
– रविन्द्र सुथार ‘रवि’, भूकरका, नोहर
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कृषि कानूनों को रद्द न किया जाए
तीनों कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया जाना चाहिए। हां, अगर किसान चाहें तो इनमें संशोधन अवश्य किया जाना चाहिए। कानून को रद्द करने की परंपरा कतई शुरू नहीं की जानी चाहिए,
– राम मूरत, इंदौर
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गलत संदेश जाएगा
तीनों कृषि कानून संवैधानिक तरीके से दोनों सदनों मे पास होने के बाद कानून बनाए गए हैं । ऐसी हालत मे इन कानूनों को केंद्र सरकार द्वारा रद्द करना बहुत ही गलत होगा। यदि दबाव में कानून वापस लिए गए तो गलत संकेत जाएगा।
-बीर भान सिंह, जबलपुर, मप्र
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स्थगित किए जाएं कानून
किसान कृषि कानून का विरोध कर रहे हैं, तो उनकी बात मानकर कुछ समय के लिए इन कानूनों को स्थगित किया जा सकता है। बाद में किसानों को साथ लेकर उनकी सहमति से कुछ संशोधन के साथ फिर से नए कानून अमल में लाए जा सकते हैं।
-संजय डागा, हातोद
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स्थगित करने में समझदारी
महामारी के दौर में देश काफी परेशानियों से गुजर रहा है। सरकार को अभी वैक्सीनेशन के उत्पादन, मेडिकल सेवा, 10 वीं और 12 वीं परीक्षाओं का आयोजन, जरूरतमंद लोगों तक मदद पहुंचाने पर ध्यान देना चाहिए। सरकार और किसान दोनों समझदारी दिखाएं। कृषि कानूनों को थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया जाए। हालात संभालने के बाद इस मामले पर फिर से विचार किया जाए।
-रितु शेखावत, जयपुर
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कमजोर होती देश की रीढ़
जिस देश को कृषि प्रधान देश की संज्ञा मिली हुई है,उस देश के किसानों को अपनी मांगे मनवाने के लिए सड़कों पर बैठना पड़े, यह कतई उचित नहीं है। किसानों को डर है कि उन पर पूंजीपतियों का वर्चस्व हो जाएगा। अब वक्त है देश की इस रीढ़ को बचाने का, जिसके लिए न्यायालय को भी सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। सरकार संसद का विशेष सत्र बुलाकर इन तीनों कानूनों को निरस्त करवाए।
-सी.पी.गोदारा,ओसियां, जोधपुर
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विरोध के कारण रद्द न हो कोई कानून
विरोध या समर्थन के कारण किसी भी कानून को रद्द करना या लागू करना सही नहीं है। किसी भी कानून में कमियां हो सकती हैं, जिसमे संशोधन की सम्भावना पर विचार होना चाहिए। किसी समूह के दबाव में कानून रद्द कर देना किसी भी राज्य और समाज के हित में नहीं होता है।
-दिनेश जोशी, बड़वानी, मप्र

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