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विज्ञान वार्ता : षट्चक्र ही एण्डोक्राइन ग्लैण्ड्स

शरीर की चक्र व्यवस्था को तंत्र में षट्चक्र कहते हैं। सातवां सहस्रार ब्रह्मरन्ध्र का स्थान है। इसकी सिद्धि के लिए इन षट्चक्रों की साधना अपेक्षित है। अनन्त आकाश और सूर्य से आने वाली ऊर्जाएं आभामण्डल और चक्रों के माध्यम से हमारे स्थूल शरीर में प्रवेश करती हैं।

Jan 23, 2021 / 08:47 am

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

जीवन के चार धरातल हैं, शरीर-मन-बुद्धि और आत्मा। शरीर-मन और बुद्धि ससीम हैं। आत्मा असीम है। शरीर स्थूल है। शरीर के चारों ओर हमारा अदृश्य आभामण्डल है जो इस वातावरण से ऊर्जा ग्रहण करता रहता है। आभामण्डल वह माध्यम है जिसमें होकर ऊर्जाएं उच्चतर सत्य अथवा यथार्थ से गहन होकर भौतिक देह में प्रविष्ट होती हैं। आभामण्डल में इन्हीं उच्चस्तरीय ऊर्जाओं का संचरण, विकास तथा विसर्जन भी होता है। ये ऊर्जाएं विकृत रूप भी धारण कर लेती हैं। इसका कारण शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक धरातल होता है। शरीर-मन और बुद्धि की स्थिरता इसी कारण अपेक्षित है क्योंकि इनकी असंतुलित अवस्था हमारी अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के रसायनों और चक्रों की ऊर्जाओं को असंतुलित कर देती है। यह असंतुलन ही अनेक रोगों का कारण बनता है। हम रोगों को स्थूल शरीर का लक्षण मानकर उसी के अनुरूप उपचार में जुटते हैं। शल्य चिकित्सा से उस अवयव या ग्रन्थि को भी निकाल देते हैं। किन्तु रोग से छुटकारा नहीं मिलता। असाध्य हो जाता है। इसका कारण हमारे खान-पान के अलावा, हमारे विचार, मन के भाव, प्रारब्ध आदि मुख्य होते हैं। इससे ग्रन्थियों और चक्रों की ऊर्जाएं विकृत होकर असाध्य रोगों को जन्म देती हैं।
शरीर की चक्र व्यवस्था को तंत्र में षट्चक्र कहते हैं। सातवां सहस्रार ब्रह्मरन्ध्र का स्थान है। इसकी सिद्धि के लिए इन षट्चक्रों की साधना अपेक्षित है। अनन्त आकाश और सूर्य से आने वाली ऊर्जाएं आभामण्डल और चक्रों के माध्यम से हमारे स्थूल शरीर में प्रवेश करती हैं।
रीढ़ के अन्तिम छोर पर स्थित मूलाधार चक्र शरीर का आधार है। जीवन शक्ति का मूल स्रोत है। यह जीवन शक्ति पृथ्वी से मिलती है इसीलिए हम पृथ्वी से जुड़े रहते हैं। मूलाधार चक्र का सम्पर्क एड्रीनल ग्रन्थि से रहता है। भय, असुरक्षा, साहस, थकान या स्फूर्ति में इसका सीधा प्रभाव दिखता है। चक्र में विकृति आने पर कमर, घुटनों में दर्द, मोटापा, व्यसन, मानसिक गिरावट आदि दिखते हैं।
इससे ऊपर पेडू में स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध गोनाड ग्रन्थि से है। इसके संचालन का आधार तत्त्व जल है। यह विसर्जन कार्य से सम्बद्ध है। मल-मूत्र त्याग, प्रजनन केन्द्र, प्रजनन अवयव, गुर्दे आदि को इसकी ऊर्जाएं प्रभावित करती हैं। मन और जल को चन्द्रमा प्रभावित करता है अत: इस चक्र की गतिविधियां हमारे मनोभावों से जुड़ी हैं। जल का गुण (तन्मात्रा) रस है जो जिह्वा से सम्बद्ध है। रसयुक्त या नीरस दोनों कार्य इस चक्र को प्रभावित करते हैं। यह भावनात्मक केन्द्र है इसलिए अति संवेदनशील भी है। ‘स्व’ का अधिष्ठान करने वाले इस केन्द्र का रहस्य मन के नियंत्रण में है। इस चक्र का भीतरी भाग स्वयं से प्रेम करना सिखाता है। यह आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्मभावों का धरातल है। व्यक्ति की रचनाधर्मिता के पोषण में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इस चक्र में विकृति आने से नकारात्मक भाव, भय, ग्लानि बढऩे लगते हैं।
मणिपूर हमारे नाभि केन्द्र में पेनक्रियाज ग्रन्थि से सम्बद्ध है। गर्भावस्था में शरीर का पोषण और विकास इसी मार्ग से होता है। यह हमारा अग्नि केन्द्र है। सूर्य से प्रभावित होने से इसका सम्बन्ध तेजस् या प्रकाश से होता है। ऊर्जा और जीवन शक्ति का भण्डारण तथा वितरण यहां होता है। पाचन संस्थान का यह नियन्त्रक है। इसकी विकृति से पाचन की व्याधियां, यकृत, तिल्ली, आंतों आदि में विकृतियां हो जाती हैं। मणिपूर का सम्बन्ध ‘कोलिक प्लेक्सिस’ से रहता है। नकारात्मक भाव यकृत को प्रभावित कर वहां सुरक्षित पोषक तत्त्वों को सोख लेते हैं। इस चक्र का भीतरी भाग मनोभावों का पाचन करता है। जो भाव पाचन से छूट जाते हैं वे पाचन संस्थान में ही चिपककर बाद में किसी रोग के रूप में प्रकट होते हैं। कभी-कभी वर्षों तक बने रहकर रोग में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहते हैं।
मणिपूर की ऊर्जाएं जीवन विकास का आधार बनती हैं। इच्छा शक्ति, संकल्प शक्ति देती हैं। दृष्टि भी देती हैं और दृष्टि की स्पष्टता भी। इसकी प्रधानता आंखों में रहती है। हमारे भाव आंखों में दिख जाते हैं। मणिपूर के बिगडऩे पर द्वेष, क्रोध, घृणा दु:ख और आवेश जैसे भाव उठते हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपूर चक्र हमारे भौतिक जीवन से जुड़े केन्द्र हैं।
हृदय के पास अनाहत चक्र, थाइमस ग्रन्थि से जुड़ा है। इस क्षेत्र को ‘कार्डिक प्लेक्सिस’ भी कहते हैं। हृदय, फेफड़े और भुजाओं पर इसका मुख्य प्रभाव रहता है। यह वायु का केन्द्र है। जिसका गुण स्पर्श है। त्वचा से इसकी अभिव्यक्ति होती है। अनाहत का कार्य भौतिक जगत् से ऊपर उठाना है। वायु का अर्थ श्वास-प्रश्वास यानी हमारी प्राणयात्रा है। इसी के साथ हमारे भाव-विचार भी चलते हैं। प्राण परिवर्तन के जनक हैं। हमारी आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कृष्ण कहते हैं कि बहुत से योगी अपान का प्राण में तथा प्राण का अपान में हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था में अन्य योगी प्राण और अपान दोनों को रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं।

‘अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ॥’ (गीता 4/29)

व्यक्तित्व के मूल परिवर्तन का यह केन्द्र है। भय या क्रोध के कारण श्वास-प्रश्वास तेज और छोटी हो जाती है। गहरी लम्बी सांस पर ताजगी का अनुभव होता है। हृदय स्पर्श का अर्थ लेना और देना दोनों हैं। लोभ की प्रवृति हमें लेने को प्रेरित करती है। हर व्यक्ति स्नेह का आदान-प्रदान चाहता है। संकुचित हृदय से यह संभव नहीं है। यही संकुचन हृदय पर आघात करता है। हमारे सुरक्षा चक्र को तोड़कर हमें अकेला कर देता है।
विशुद्धि चक्र गले के केन्द्र में थॉयरायड ग्रन्थि से जुड़ा है। कान, नाक, गला, मुंह इसके स्थूल कार्यक्षेत्र हैं। सम्प्रेषण इसकी मूल भूमिका है। उच्चतम धरातल पर आत्मा या ईश्वर से जोडऩा इसका कार्य है। इसका तत्त्व आकाश और तन्मात्रा ध्वनि है। स्पन्दन ही सृष्टि को गतिमान रखते हैं। बाहर भी, भीतर भी। इसीलिए मंत्रों का महत्त्व है। भीतर के स्पन्दन ऊपर उठकर अन्तरिक्ष के स्पन्दनों को प्रभावित करते हैं और उनसे स्वयं भी प्रभावित होते हैं। विशुद्धि केन्द्र, नीचे के सभी चक्र केन्द्रों को प्रभावित करता है। जैसे विचार होंगे वैसे ही स्पन्दन होंगे। खान-पान का असर भी विशुद्धि पर पड़ता है। हार्मोन का उत्पादन-संतुलन यहीं से होता है। अत: शरीर के वजन पर इसका प्रभाव पड़ता है।
भ्रूमध्य में आज्ञाकेन्द्र का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क के कार्यकलापों स्नायु तंत्र से है। इसे तीसरी आंख भी कहते हैं। अवचेतन मन से सम्पर्क साधने का यह केन्द्र है। यहां से व्यक्ति ज्ञान की ऊंचाइयां छू सकता है। आज्ञाचक्र विचारों के धरातल को प्रभावित करता है। यह ध्वनि से आगे प्रकाश का क्षेत्र है। प्रकाश ऊर्जाओं का ग्रहण, भण्डारण और प्रसारण यहीं से नियंत्रित होता है। साधना में इस केन्द्र का बड़ा महत्व है। सूक्ष्म शरीर के स्पन्दनों को भी यहीं से प्रभावित किया जाता है। इसका सम्बन्ध पीनियल ग्रन्थि से है। इस केन्द्र की विकृति से माइग्रेन, मानसिक थकावट जैसे लक्षण प्रकट होते हैं।
सिर के उपरि भाग में सहस्रार का स्थान है। यह आकार में सबसे बड़ा केन्द्र है। यह अलौकिक धरातल से जुड़ा रहता है। वायुमण्डल से ऊर्जा ग्रहण करता है। द्वन्द्वातीत धरातल है, शुद्ध चेतना से सम्पर्क का, आत्मा का धरातल है। सूक्ष्म शरीर का नियन्ता है। सहस्रार की विकृति से स्नायुरोग होते हैं। लकवा या स्लेरोसिस जैसी व्याधियां हो सकती हैं। अत: चक्रों का संतुलन आवश्यक है इससे व्यक्ति स्वस्थ जीवनयापन कर आध्यात्मिक मार्ग की ओर प्रशस्त होता है।

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