शरीर ही ब्रह्माण्ड Podcast: योग – स्वयं से स्वयं का
Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: योग का तो एक ही लक्ष्य है – योग के सहारे हम स्थूल से चलकर अपना आत्म साक्षात्कार करें। फिर आत्मा को अंशी से जोड़े। कृष्ण कहते हैं – ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:, अर्थात् सब मेरे अंश हैं, कृष्ण हैं। कृष्ण के विराट् स्वरूप में क्या नहीं है?… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में कल सुनें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख- योग – स्वयं से स्वयं का
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (गीता 2.48) अनासक्त भाव से सुख-दु:ख में समान भाव से कर्म करो। न सुख में नाचो, न दु:ख में रोओ। यही समत्व भाव है।
इसी का व्यावहारिक स्वरूप है ‘मेरी भावना’ का एक अंश- दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रखूं मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे।। यही जीवन की श्रेष्ठतम स्थिति है। जो जैसा है, होगा। उसकी चिन्ता वही करे, मैं क्यों करूं! मैं मेरे उत्थान पर केन्द्रित रहूं। जिस ईश्वर ने मुझे बनाया है, उसको भी, उसके पूर्व कर्मों के अनुसार, उसी ईश्वर ने बनाया है।
सामान्यत: देखा जाता है कि स्वार्थ दृष्टि से शत्रु का अहित करते जाने की इच्छा रहती है। परमार्थ दृष्टि से वही शत्रु आदरणीय, प्रसाद रूप एवं हितैषी जान पडे़गा। उसके रहते मेरी जरा-सी गलती मेरा बड़ा नुकसान करा सकती है। अत: मुझे अपने सभी कमजोर पहलुओं का आकलन करके उन्हें सुदृढ़ करने का मौका देता है। अपनी जड़ों को मजबूत करने को, फलों से समाज को लाभान्वित करने को, अगली पीढ़ी को विश्वास में लेने को प्रेरित करता है। कहते हैं कि ‘निन्दक नियरे राखिए’। शत्रु आपकी जडे़ं काटना चाहता है, अत: आपका ध्यान जड़ों (आत्मा) की ओर रहता है। इसलिए शत्रु का तो सदा सम्मान होना चाहिए। आपकी अभिवृद्धि, आपके अभ्युदय में उसकी बड़ी भूमिका होती है।
अविद्या व्यक्ति का सबसे बड़ा शत्रु भाव है। इसी में काम है, क्रोध है, आसक्ति है, मिथ्या दृष्टि है, अधोगति है। अविद्या एक आत्मा का आवरण है जिसकी अनेक परतें हैं। इसी से हमारा जन्म होता है, इसी से मन-बुद्धि आदि चंचल रहते हैं। प्रकृति का आवरण भी इसी का अंग है। ऐसी बुद्धि का प्रभाव क्या होता है, इस विषय में कृष्ण कहते हैं कि-
‘‘जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल चाहने वाले- कर्मकाण्ड रूप क्रियाओं में प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही श्रेष्ठतम उपलब्धि है, ऐसे व्यक्ति वाणी से छला करते हैं। भोग-ऐश्वर्य के सपने दिखाने वाली क्रियाओं के वर्णन से चित्त को हरने का प्रयास करते हैं। भोग और मोह में आसक्त लोगों की बुद्धि निश्चयात्मिका नहीं होती। अविद्या का द्वन्द्व सदा इनके जीवन में बना ही रहता है। शान्ति खो जाती है। जहां तीन-चौथाई असुर हों, वहां देव शक्ति कहां तक समर्थ हो सकती है।’’
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। (गीता 8.25) ‘यथाण्डे तथा पिण्डे’- पहला श्लोक पिण्ड रूप देह का है, दूसरा और तीसरा श्लोक संवत्सर में सूर्य के दो अयनों का स्वरूप है। इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाकर देखें तो- ब्रह्मा का एक दिन और एक रात बराबर होते हैं-सृष्टि और प्रलयकाल एक हजार चतुर्युग वाले। वैसे ही हम मनुष्यों के भी दिन-रात समान काल के होते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि जो गतिविधियां सृष्टि व प्रलयकाल की रात्रि/दिन में होती हैं, वैसी ही गतिविधियां सूर्य के दक्षिणायन/उत्तरायण में तथा हमारे रात/दिन में भी होती हैं। रात्रिकाल अविद्या का, वरुण का, असुरों का, अंधकार का काल है। दिव्य शक्तियों पर आक्रमण का काल है। इसी काल में लक्ष्मी भी अपने वाहन पर सवार होकर जीवों को इन्द्रिय सुखों-भोगों के जाल में पकड़ने का प्रयास करती है। लोभ-मोह हावी होने लगते हैं, काम का आक्रमण होता है। यही कारण है कि जाग्रत योगी रात में दिव्य शक्तियों को साधते हुए जागता है। दैवी शक्तियों का आह्वान करके अपने आत्मा के स्वरूप की रक्षा करता है। इन्द्रिय संयम द्वारा काम-क्रोध-लोभ पर विजय प्राप्त करता है। दिन के जीवन में उसकी कोई रुचि नहीं रहती।
यही योगी के व्यवहार का स्वरूप है। तटस्थ भाव इस व्यवहार का एक आयाम है। जैसे कछुआ सब ओर से अंगों को समेट लेता है, वैसे ही योगी इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रियों से हटाकर स्थिर-बुद्धि हो जाता है (2/58)। व्यक्ति कितना भी विषयों से भागे, प्रकृति उसे हठात् वापिस जोड़ देती है। अत: संयम द्वारा इन्द्रियों को मन में लौटा लाना ही उपयुक्त हल है।
योग का तो एक ही लक्ष्य है – योग के सहारे हम स्थूल से चलकर अपना आत्म साक्षात्कार करें। फिर आत्मा को अंशी से जोडे़ं। कृष्ण कहते हैं – ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। सब मेरे अंश हैं, कृष्ण हैं। कृष्ण के विराट् स्वरूप में क्या नहीं है? अंश होने के नाते वे सारे तत्त्व अंश भाव में हमारे भीतर भी हैं। तब मुझे भी अपनी पूर्णता को समझना होगा। पिता यदि पूर्ण है तो पुत्र भी पूर्ण ही होना चाहिए।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते। यह पूर्णता की समझ ही योग का लक्ष्य है। निष्काम भाव की निष्पत्ति है। जब मेरा चेतन स्वरूप स्पष्ट होगा तब माया-कामना तिरोहित हो जाएगी। कामना जीवन के अभाव की ***** है, मृत्यु भाव है। योग कामना-विजय का मार्ग है। हां, कामना यज्ञ रूप होकर निर्माण का मार्ग भी प्रशस्त करती है। विवाह कर्म इसका उदाहरण है। यही सृष्टिगत मार्ग है। योग से विपरीत दिशा है। वहां प्रश्न उठ सकता है कि मैं कौन? मेरा स्वरूप, मेरी परिभाषा, कार्य शैली एवं मेरी भूमिका क्या है? कृष्ण स्वयं को अव्यय मन कह रहे हैं, श्वोवसीयस मन कह रहे हैं। वही मन मेरा हृदय-केन्द्र है। मैं स्वयं भी वही मन हूं।
जिसको हम अपना मन मान रहे हैं, जिसके आधार पर मनोविज्ञान का मन खड़ा है, इनमें कृष्ण के अव्यय मन की बात नहीं है। कृष्ण कहते हैं कि सृष्टि में दो मन नहीं हैं। हमारा आत्मा षोडशकल है। इनमें अव्यय, अक्षर, क्षर पुरुष की पांच-पांच कलाएं हैं, किन्तु मन एक ही अव्यय मन है। इस मन को ही गीता में आत्मा का आलम्बन कहा है। न अक्षर में मन, न क्षर में। गीता का ‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ यही अव्यय मन है। यही पुरुष-यत्-गति-ऋषि आदि नाम का सृष्टि ‘पुरुष’ है। यही पुरुष तो हमारे भीतर भी है। यही गीता कह रही है। इसको समझे बिना हम योग को नहीं समझ पाएंगे। पतंजलि भी इसकी चर्चा कर रहे हैं।
हमारे पुरुषार्थ के चार अंग हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। अध्यात्म के चार अंग हैं-बुद्धि, शरीर, मन, आत्मा। साथ में गीता के भी चार योग हैं-ज्ञान, कर्म, भक्ति, वैराग्य बुद्धियोग। इनमें गीता की देन है वैराग्य बुद्धियोग। शेष तीन योग गीता पूर्व भी प्रचलन में थे। अविद्याओं में आसक्ति को बड़ा माना है। राग मूल है, राग ही द्वेष बन जाता है, जिस प्रकार काम ही क्रोध बन जाता है। आसक्ति का प्रभाव दूर करने के लिए ही वैराग्य बुद्धियोग का उदय आवश्यक है। राग-द्वेषादि संस्कारों के साथ रहने वाला बन्ध खुल जाता है।
राग-द्वेषादि शरीर के धर्म हैं। शरीर के रहते इनका शून्य हो जाना संभव नहीं है। इनका विषय-ग्रहण/परित्याग का भार इन्द्रियों पर तथा वैराग्य का भार आत्मा पर पड़ता है। इस विभाजन में सांसारिक कर्म भी रहते हैं और बुद्धि योगी वैराग्य प्रभाव से सदा तृप्त रहता है। (पं. मोतीलाल शास्त्री- गीता भूमिका)।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।। (गीता 2.64) सुखों की पूर्ण निवृत्ति के लिए आसक्ति मुक्त होना, समत्व योग का उदय होना आवश्यक है। इसका हेतु ही ग्रहण-परित्याग रूप वैराग्य बुद्धियोग होता है। कृष्ण राजा थे और योगेश्वर भी। न किसी कर्म का त्याग किया, न कर्म समाप्ति पर उसका ग्रहण ही किया। लिप्त भी, निर्लिप्त भी। क्रमश:
‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में प्रकाशित विशेष लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –