तब आंदोलन की बागडोर जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राम मनोहर लोहिया जैसे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के नायकों ने संभाली थी। 23 अक्टूबर, 1942 को ‘जब भारत छोड़ो’ आंदोलन अपने चरम शिखर पर था। हेमू को पता चला कि शहर में हथियारों से लदी रेलगाड़ी सिंध के रोहिणी स्टेशन से रवाना होकर सक्खर शहर से गुजरती हुई बलूचिस्तान के क्वेटा नगर पहुंचेगी।
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हेमू कालाणी ने रेलगाड़ी को गिराने का विचार किया। दो सहयोगियों नंद और किशन को भी साथ लिया। रेलगाड़ी गुजरने से पहले ही तीनों एक स्थान पर पहुंचे। हेमू कालाणी ने रेल की पटरियों की फिशप्लेटों को उखाडऩा शुरू कर दिया। इस बीच गश्त कर रहे सैनिक घटनास्थल पर आए। नंद और किशन तो बच निकले। हेमू कालाणी अपना कार्य करते रहे और उन्हें पकड़ लिया गया।
मार्शल लॉ कोर्ट ने हेमू कालाणी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिसे कर्नल रिचर्डसन ने फांसी में बदल दिया। 21 जनवरी 1943 को प्रात: 7.55 पर हेमू कालाणी ने फांसी के फंदे को चूमकर संसार को अलविदा कह दिया। उनकी शहादत आज की युवा पीढ़ी को नई दिशा प्रदान करती है। ऐसे वीरों को इतिहास हमेशा याद रखता है।
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