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पुनर्विचार आवश्यक

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही एक मामले में कहा है कि सरकार को समय-समय पर आरक्षण नीति और इसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसके लाभ उन लोगों तक पहुंच रहे हैं जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

Apr 28, 2020 / 07:11 am

Gulab Kothari

Supreme Court Recruitment 2019

Supreme Court Recruitment 2019

– गुलाब कोठारी

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही एक मामले में कहा है कि सरकार को समय-समय पर आरक्षण नीति और इसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसके लाभ उन लोगों तक पहुंच रहे हैं जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

आरक्षण आत्मा का विषय है। सब में एक है। कर्म फलों के कारण स्वरूप भिन्न दिखते हैं। सृष्टि में जितने पशु-पक्षी-कीट दिखाई पड़ते हैं, वे कभी मनुष्य ही थे। कर्म फल भोगने के लिए इन योनियों में गए, कल फिर से मानव बनेंगे। मानव शरीर मोक्ष द्वार भी है। इस भारतीय दृष्टि से आरक्षण मात्र सामाजिक विषय ही नहीं रह जाता। यह सभ्यता का मुद्दा न होकर संस्कृति का क्षेत्र है, जिस पर विधि या प्रशासन की दृष्टि जाती ही नहीं। यह बुद्धि मात्र से समझा जाने वाला विषय होता तो सत्तर साल बाद भी बढ़ता हुआ रोगनहीं बन पाता। सत्ता अट्टहास करती है, मानो सृष्टि रहने तक हम ही शासन करेंगे। दिव्यता खो बैठी है। फिर कौन हमें जगतगुरु मानेगा!

इतिहास साक्षी है-लोकतंत्र में भी सत्ता पक्ष बहुमत के आधार पर अधिनायकवादी हो जाता है। मानवीय संवेदना खो बैठता है। वैसे भी क्रान्ति तो युवा के नेतृत्व में ही आती है। उनमें जोश होता है, आंखों में सपने होते हैं, शक्ति का महासागर होता है। सन् 1990 का आरक्षण विरोधी आन्दोलन युवा आन्दोलन ही था।

आरक्षण का विचार राष्ट्र सृजन की दिशा में उचित कहा जा सकता है, किन्तु इसका केन्द्रीय आधार ‘वर्तमान’ होना चाहिए, न कि भूतकाल; जैसा कि वर्तमान मण्डल आयोग की सिफारिशों का आधार (सन् 1931 की जनगणना) है।

जाति को इकाई क्यों बनाएं? एक ही नाम की जातियां भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। हर जाति में गरीब-अमीर दोनों हैं। अनुसूची में नाम की समानता को आधार पकड़ लिया। तब आदिवासियों के बदलाव में ठहराव आ गए। लोग पुन: अपने पुराने जाति नामों का प्रयोग करने लगे, जैसे राजस्थान में मीणा या मीना जाति। इस भागमभाग में ‘जाति’ शब्द को परिभाषित करना ही भूल गए। ‘इण्डिया दैट इज भारत’ की तरह हो गया।

इसका नुकसान यह हुआ कि जिस जाति-प्रथा के उन्मूलन का संकल्प किया गया था, उसे पुन: प्रतिष्ठित करके विकास की धारा को ही उलट दिया। अखण्डता के सपने संजोकर आजादी पाने वाला ही जाति-धर्म में खण्ड-खण्ड हो गया। युवा ने आंखों पर जातियों की पट्टियां बांध ली। राजनीति के मोहरे बन गए। शिक्षा के मन्दिर राजनीति के अखाड़े हो गए। जाति-विग्रह के आगे देश छोटा पड़ गया। यह तो ठीक है कि पिछड़े हुए वर्गों की क्षमता बढ़ाई जाए, उन्हें नौकरी या जीवनयापन की अन्य सुविधाएं दी जाए, पर अवसर पाने के बाद योग्यता के आधार पर ही आगे के फैसले होने चाहिए।

गुजरात का पटेल आंदोलन एवं राजस्थान का गुर्जर आंदोलन इस बात का प्रमाण है कि जाति के स्थान पर समाज के व्यवहार के ढांचे की समीक्षा होनी चाहिए। आरक्षण की प्राथमिकता पिछड़े वर्ग को सहारा देकर मुख्यधारा से जोडऩे की होनी चाहिए। इसमें गलत कुछ नहीं होगा। हर व्यक्ति को अधिकार तो समान मिलेगा।

पिछले सात दशकों में आरक्षण का घुण देश की संस्कृति, समृद्धि, अभ्युदय सब को खा गया। शिक्षा नौकर पैदा कर रही है। खेती, पशु-पालन, पुश्तैनी कार्य छूटते जा रहे हैं। गुणवत्ता खो रही है। निर्यात के स्थान पर आयात बढ़ रहा है। पेंसिल छीलने का शार्पनर और नेलकटर भी विदेशी?

सरकारें मौन। मौन स्वीकृति भी आग में घी का कार्य कर रही है। बहुमत की सरकारें भी देश हित के स्थान पर निजी स्वार्थ को ही बड़ा मानें, तो क्या कहना चाहिए उनको? नाकारा या नपुंसक? उनकी कृपा से आज हर जाति-समाज आरक्षण की तख्तियां हाथ में उठा चुका है। ‘हमें भी आरक्षण दो या आरक्षण समाप्त करो’ का नारा बुलंदी पर है। दूसरी ओर शिक्षित व्यक्ति की क्षमता क्या रह गई? हर स्तर पर नीति में खोट दिखाई दे रही है। क्यों?

नीतियां बुद्धिजीवी बनाते हैं, माटी से इनका जुड़ाव ही नहीं, संवेदना इनके पाठ्यक्रम में नहीं। वे आंकड़ों में जीते हैं, शरीर-प्रज्ञा से अविज्ञ होते हैं। भारत जैसे देश में लिव-इन-रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता क्या विवेकशीलता है। देश पनपता है अभ्युदय नि:श्रेयस के भाव से। भौतिकवाद में इन शब्दों का अभाव है।

आरक्षण के नाम पर हम लक्ष्य से पूरी तरह भटक गए हैं। जो चाहा, कुछ नहीं हुआ। अनचाहा, सब हो गया। गरीब को उठाना था, नहीं उठा। गरीबी बढ़ी ही है। देश की अखण्डता को अक्षुण्ण रखना था। खण्ड खण्ड कर दिया। इसी को उपलब्धि मानकर अट्टहास करते हैं, हमारे नीति निर्माता। निर्लज्ज कहीं के!

आरक्षण ने सभी में हीनभावना भर दी। सभी अल्पसंख्यक हो गए। कानून की धृष्टता देखिए, हर कोई अल्प-संख्यक हुए जा रहा है। संविधान में बहुसंख्यक की परिभाषा तक नहीं है। फिर किसके आगे अल्प-संख्यक? इसी नासमझी से प्रकृतिदत्त वर्ण व्यवस्था से समाज को मुक्त कर दिया। वर्ण तो मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी-देवता के भी होते हैं। कृष्ण को हमारे कानूनविदों ने अज्ञानी सिद्ध कर दिया।

आरक्षण के कारण गुणवत्ता में समझौता नहीं होना चाहिए। महिला आरक्षण से जीती हुई सरपंच का कार्य उसका पति करेगा तो यह संविधान का ही अपमान है। राजनीति वोट के स्थान पर जनहित की होगी, तो भी अधिक सफल होगी। एकपक्षीय दृष्टि को बदलना पड़ेगा। वरना, आने वाली पीढिय़ों के लिए देश सुरक्षित नहीं रहेगा। आज भी प्रतिभा पलायन तो शुरू हो ही गया है। नीति निर्माता ही अपनी सन्तान को बाहर भेजकर सन्तुष्ट होते हैं। प्रतिभाशाली युवा भी बाहर जा रहे हैं। आरक्षण के पहले हम पिछड़े थे, अब अतिपिछड़े भी हो गए। सवर्ण तो पिछड़ा होता ही नहीं।

मंडल आयोग को तीन बिंदुओं पर रिपोर्ट देनी थी-(1) सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की खोज का आधार, (2) उत्थान के उपाय, (3) आरक्षण जैसे सुझाव। आयोग ने ऐसा नहीं किया। न ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्रश्न उठाया। आयोग की रिपोर्ट मात्र सवर्णों के सामाजिक व्यवहार पर आक्रमण करना था, कर दिया। परिणाम? जिस आधार पर अवसर की समानता का अधिकार है, उसके स्थान पर आज जाति ही प्रमुख योग्यता बन गई। इसका तो संविधान में निषेध है। इसने आज के युवा को लाचारी के अंधे कुएं में डाल दिया। आज उसे पेट के आगे कुछ नहीं सूझता।

आरक्षण ने इससे भी आगे जाकर हमारी अखण्डता की हत्या कर दी। यह कार्य तो अंग्रेज चाहकर भी नहीं कर पाए थे। नीतियां बनाने वाले प्रज्ञा-हीन लोग ही आज इसी व्यवस्था के उत्पाद हैं। पहले देश को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बांटा। मुस्लिम अल्प-संख्यक हो गए, हिन्दू बहुसंख्यक। दोनों समाज सिमट गए। आजादी का नशा काफूर हो गया। आरक्षण ने शेष हिन्दुओं को भी 50-50 कर दिया। आधे सवर्ण कहलाने लगे, आधे आरक्षित। ये दोनों भी मुसलमानों की तरह ही आपस में एक-दूसरे से सिमट गए। मुसलमानों से व्यवहार कभी इतना बुरा नहीं रहा, जितना कि आरक्षित वर्ग ने वातावरण पैदा किया। लाभ केवल कुछ ‘सरकारी नौकरी’ और नुकसान ‘सामाजिक अपमान’। नौकरी कुछ को, शेष को अपमान। मेरा भारत महान्।

अब एक भारत में तीन भारत जी रहे हैं। गुणवत्ता, क्षमता, व्यवहार। समृद्धि दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। वैमनस्य ही बढ़ रहा है। मध्य वर्ग ***** रहा है। तीनों समुदाय एक-दूसरे के शत्रु हो चुके हैं। देश के विकास की चर्चा गौण हो चुकी है। राजनेता भी यही चाहते हैं। जब तक जीएं, कुर्सी बनी रहे। तभी तो देश हित को भी दर गुजर करके हर बार आरक्षण की समय सीमा को बढ़ाते रहते हैं। अब तो कानून भी कुछ ऐसा ही समझने लगा है। तब क्या देश बचेगा? आज के कानूनों के रहते तो कल्कि अवतार भी नहीं बचा पायेगा। न हमें डूबने के लिए विदेशी सहायता की कोई आवश्यकता ही पड़ेगी। इसके लिए हमारे सभी राजनीतिक दल सक्षम हैं। विक्षुब्ध है तो बस युवा और देश का भविष्य।

आज भी हमारे देश में बहुत लोग पिछड़े हुए हैं। उन्हें मुख्यधारा से जोडऩे के लिए आज भी आरक्षण की आवश्यकता है। पहले जो आधार तय किये गए थे वे तत्कालीन परिस्थितियों पर आधारित थे। अब उन आधारों का, नीतियों का वर्तमान की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विस्तार से आकलन करके पुनर्निर्धारण किया जाना चाहिए। जातिगत आधार सही है या नहीं, इस पर भी पुनर्विचार आवश्यक है। आधार, आर्थिक या जो भी हो, ऐसा नहीं हो कि एकजुट होने की बजाय देश विखण्डन की ओर बढ़ता रहे। कोरोना के दौर में सरकार को कई कठोर फैसले लेने पड़ रहे हैं। एक फैसला आरक्षण को लेकर भी कर ही डालना चाहिए।

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