बहरहाल, घुंघरुओं के माधुर्य में भावों का समन्दर लखनऊ और जयपुर घराने में भी नर्तक रचता है, पर रायगढ़ घराने में पढ़न्त की अपनी रस निस्पति है। परनों या बंदिशों का नामकरण देखें – दलबादल, गजविलास, किलकिला, पक्षी परन आदि। राजा चक्रधर सिंह ने रायगढ़ घराने में भाव पक्ष को अधिक महत्त्व दिया। शायद इसलिए कि आंगिक मुद्राएं भावहीन होती बहुतेरी बार नृत्य में यांत्रिकता लाती हैं। मूलत: यह घराना लोकोन्मुख है। अल्लाह जिलाई बाई ने जिस तरह गुणीजन खाने में तालीम लेते हुए राजस्थानी मांड ‘पधारो म्हारे देश’ को बुलंदी पर पहुंचाया, ऐसे ही रायगढ़ दरबार में लोक के साथ घुली शास्त्रीयता की सहजता पर विचारने की जरूत है। राजा चक्रधर सिंह ने कभी छत्तीसगढ़ अंचल के लोक कलाकारों का चयन करके ही उन्हें कथक की विधिवत शिक्षा दिला इस घराने का सूत्रपात किया था। ऐसे समय में जब यह नृत्य विलास और मनोरंजन का नाच बन रहा था, उन्होंने इसे ज्ञान की साधना से जोड़ा।
लोक जीवन की सहज क्रियाएं और प्रकृति से जुड़ी ध्वनियां इसमें जीवंत होती देखने वाले के मन में बसती हैं। ‘जोड़ा’ भी खास है। लखनऊ, जयपुर व बनारस शैली की रचनाओं को लेकर ऐसे बहुत से जोड़े इसमें बने हैं जिनमें ताण्डव व लास्य के बोल हैं। छंद का लाक्षणिक प्रयोग है। सोचता हूं, पृथक से रायगढ़ घराने की दरकार आखिर क्योंकर पड़ी? शायद इसलिए कि कथक उस समय मनोरंजन क्रिया बन उजाड़ पर था। राजा चक्रधर ने इसीलिए भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, संगीत रत्नाकर आदि गं्रथों से प्रेरणा ले नवीन गं्रथ रचे। लोक की सहजता को अंवेरते नृत्य की शास्त्रीयता को परोटा। पर यह विडम्बना है कि इस घराने की उनकी सोच के अनुरूप बढ़त नहीं हुई। पारम्परिक कलाकार भी सीखे हुए में बढ़त करने की ओर प्रवृत्त नहीं हुए। इसी से इसका वर्तमान उपेक्षित-सा लगता है।