अच्छा होता ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ कानून लागू करते समय अफसरों की जवाबदेही भी तय होती। जैसे जनता को स्वस्थ रखने के लिए साफ पानी की सप्लाई की जाएगी या रोग फैलाने वाले कीटाणु न पनपें, इसके लिए साफ-सफाई की श्रेष्ठ व्यवस्था की जाएगी।
नकली दवाओं की रोकथाम होगी। हर गांव-ढाणी तक उचित स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचेंगी। साथ में यह प्रावधान भी होता कि व्यवस्था न कर पाने वाले अफसरों को सजा दी जाएगी। पर ऐसा हो नहीं पाया। अफसरशाही ने चालाकी से ऐसे प्रावधानों को कानून में शामिल ही नहीं होने दिया जो उनकी ‘स्वच्छंदता’ में बाधक बनते।
‘राइट टू हेल्थ’ के शोर-शराबे में जनता यह बात भी भूल गई कि विधानसभा को जवाबदेही कानून भी पास करना था। यह कानून पास हो जाता तो हर काम के लिए अफसरों की जवाबदेही तय हो जाती।
काम समय पर पूरा नहीं करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई भी होती। ऐसा शिकंजा अफसरशाही को भला कैसे मंजूर हो सकता है। नेता तो हर पांच साल में बदलते हैं। अफसर तो एक बार बन गए तो बन गए। सही मायने में तो ‘राज’ वे ही करते हैं। और राज करने वाले ‘राजाओं’ पर कौन अंकुश लगा सकता है!
प्रवाह : भ्रष्टाचार के रखवाले
राजस्थान में 2018 में जवाबदेही कानून लागू करने की मंशा की घोषणा हुई थी। मुख्यमंत्री तीन बार बजट में घोषणा कर चुके हैं। पर अफसरों की मर्जी के आगे लाचार हैं।
उन्होंने बहुत बड़े-बडे़ निर्णय कर दिए। पर अपना ही एक निर्णय लागू नहीं करवा पा रहे। आखिर फिर चुनाव में उतरना है। अफसरों से पंगा क्यों लें! इसीलिए बिना जवाबदेही कानून पारित कराए, विधानसभा की कार्यवाही स्थगित हो गई।
जनता का क्या है- सरकारी दफ्तरों की चौखटों पर चप्पलें घिसते-घिसते उम्र गुजर गई। बल्कि पीढ़ियां गुजर गईं। और सह लेगी। वह सरकारों और अफसरों की पैरों की जूती बनकर रहती आई है और आगे भी बने रहना है।
अफसर बड़े से बड़े भ्रष्टाचार में भी लिप्त हों तो सरकारों पर दबाव डालकर बचाव के रास्ते निकाल लेते हैं। कभी ‘काला कानून’ लाने की कोशिश करते हैं तो कभी ‘काला फरमान’।
मामले दर्ज भी हो जाएं तो सरकारों पर दबाव डालते हैं कि मुकदमे चलाने की अनुमति न दी जाए। बेचारी सरकारों को दबाव में आना पड़ता है। फिर जवाबदेही कानून तो बहुत बड़ी बात है।
मुख्यमंत्री कितनी भी घोषणाएं कर दें, अफसरों के लिए ऐसी घोषणाओं की एक पैसे की भी कीमत नहीं है। यही कारण है कि जवाबदेही कानून फिर एक बार ठंडे बस्ते में चला गया। जय लोकतंत्र!