दो दिन पहले इस घटना का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें बिना किसी ठोस सबूत के अपराधी मानकर युवक के साथ जिस क्रूरता से व्यवहार किया गया, वह न केवल कानून के प्रति लोगों की उदासीनता दर्शाता है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने में व्याप्त जातिगत भेदभाव और असमानता की जड़ों को भी उजागर करता है।
चिंताजनक पहलू यह है कि लोग बात-बेबात में कानून हाथ में लेकर खुद ही सजा देने पर उतारू होने लगे हैं। यह अधिकार केवल न्यायपालिका को प्राप्त है। फिर भला कोई भी इस अधिकार को अपने हाथ में कैसे ले सकता है। पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की निष्क्रियता भी सामने आई। ऐसे मामलों को गंभीरता से न लेना भी एक तरह से ऐसी घटनाओं को बढ़ावा देना है। मामला उजागर होनेे पर पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार भी किया है। लेकिन पुलिस पहले से ही सचेत होती तो कानून को हाथ में लेने का ऐसा दुस्साहस कोई भी नहीं कर पाता।
दलित उत्पीडऩ से जुड़ीं घटनाएं बताती हैं कि कानून का डर और सामाजिक समानता की भावना अब भी हमारे समाज में पूरी तरह से स्थापित नहीं हो पाई है। इसे बदलने के लिए ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। कानून को अपने हाथ में लेने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए, ताकि पीडि़त को त्वरित न्याय मिल सके। साथ ही समाज में यह संदेश जा सके कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। भेदभाव और सामाजिक असमानता को जड़ से समाप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।
हमारे पुलिस बल को अधिक संवेदनशील और जवाबदेह बनाने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। उन्हें एहसास होना चाहिए कि उनकी जिम्मेदारी केवल अपराधियों को पकडऩा ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना भी है। भेदभाव और हिंसा के ऐसे मामलों का केवल कानूनी समाधान ही पर्याप्त नहीं है, हमें अपने सोचने-समझने के तरीके में भी बदलाव लाना होगा।