scriptहरियाणा चुनाव : छोटे दलों से दूरी कांग्रेस पर पड़ी भारी | Patrika OpinionDistance from smaller parties cost Congress heavily | Patrika News
ओपिनियन

हरियाणा चुनाव : छोटे दलों से दूरी कांग्रेस पर पड़ी भारी

हरियाणा में कांग्रेस अपने मित्र दलों को भी साथ नहीं ले पाई, जबकि इनेलो-बसपा और जजपा-आसपा गठबंधन भाजपा के अप्रत्यक्ष मददगार बन गए। भाजपा और कांग्रेस को मिले मत प्रतिशत में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर रहा, पर सीटों में यह अंतर 11 का हो गया।

जयपुरOct 14, 2024 / 02:40 pm

विकास माथुर

यह विपक्ष की विडंबना ही है कि वह चुनावी मुकाबले में एक कदम आगे बढ़ता है और फिर दो कदम पीछे फिसल जाता है। हरियाणा विधानसभा चुनाव नवीनतम उदाहरण है। अप्रेल-जून में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को अकेले दम पर बहुमत पाने से वंचित रखने में सफल विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ खुद 232 सीटों तक पहुंच गया था यानी भाजपा से मात्र आठ सीटें कम। जाहिर है, लगातार तीसरी बार केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने में विपक्ष का भी कुछ योगदान रहा, जो स्वाभाविक मित्र दलों को भी गठबंधन में साथ नहीं रख पाया, जबकि भाजपा नए-पुराने मित्र जोडऩे में सफल रही।
लोकसभा चुनावों के बाद सबसे पहले हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए। भाजपा और कांग्रेस को मिली पांच-पांच लोकसभा सीटों से साफ था कि मुकाबला बराबरी का है। यह भी कि सही चुनावी रणनीति और प्रबंधन के जरिए कांग्रेस दस साल बाद हरियाणा की सत्ता में लौट भी सकती है, लेकिन चुनाव परिणाम चौंकाने वाले आए। यह पहली बार नहीं है, जब हार के बाद कारणों की खोज हो रही है, पर याद नहीं पड़ता कि गलतियों से कभी कोई सबक सीखा गया हो। पिछले साल के अंत में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में भी बाद के दोनों राज्यों में कांग्रेस की जीत की संभावनाएं चुनावी पंडित बता रहे थे, लेकिन परिणाम लगभग एकतरफा आए। तब भी रेखांकित किया गया था कि छोटे और क्षेत्रीय दलों को साथ न लेना कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण रहा।
लोकसभा चुनाव में भूल सुधार की कोशिश की गई तो राजस्थान और हरियाणा में बेहतर परिणाम भी मिले, पर उन्हें अपने पुनरुत्थान का ठोस संकेत मान कर कांग्रेस फिर हवा में उडऩे लगी। दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस-आप के बीच गठबंधन हुआ। दिल्ली में तो यह गठबंधन भाजपा को लगातार तीसरी बार सभी सात सीटें जीतने से नहीं रोक पाया, लेकिन हरियाणा में स्कोर 5-5 का रहा। आप अपने हिस्से की कुरुक्षेत्र सीट नहीं जीत पाई, जबकि कांग्रेस अपने हिस्से की नौ में से पांच सीटें जीत गई, तो उसे लगा कि वह अकेले दम पर भाजपा से हरियाणा की सत्ता छीन सकती है। राहुल गांधी ने इच्छा भी जताई कि न सिर्फ आप, बल्कि सपा और माकपा को भी साथ ले कर हरियाणा में ‘इंडिया’ गठबंधन की एकजुट तस्वीर पेश की जानी चाहिए। निश्चय ही राहुल गांधी की इच्छा दूरगामी राष्ट्रीय राजनीतिक हानि-लाभ से प्रेरित रही होगी, लेकिन क्षत्रपों का अपना ही खेल रहता है। क्षत्रप अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से आगे नहीं देखते।
चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि अगर दस साल की सत्ता विरोधी भावना के बावजूद भाजपा जीत की हैट्रिक लगाने में सफल रही तो कांग्रेस ने अपनी आसान दिखती जीत को खुद ही हार में तब्दील किया। पांच सीटों पर आप के उम्मीदवारों को हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट मिले। छोटे दलों और निर्दलियों की बात करें तो वे 14 सीटों के नतीजे प्रभावित करने में सफल रहे। ध्यान रहे कि कांग्रेस अपने मित्र दलों को भी साथ नहीं ले पाई, जबकि इनेलो-बसपा और जजपा-आसपा गठबंधन भाजपा के अप्रत्यक्ष मददगार बन गए। भाजपा और कांग्रेस को मिले मत प्रतिशत में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर रहा, पर सीटों में यह अंतर 11 का हो गया। भाजपा की 48 और कांग्रेस की 37 सीटों के मद्देनजर क्या ये आंकड़े हार-जीत की पूरी कहानी खुद ही बयां नहीं कर देते? जाहिर है, मित्र दलों में यह धारणा मजबूत हो रही है कि कांग्रेस गठबंधन को चुनावी मजबूरी मानती है। इसलिए गठबंधन धर्म का निर्वाह करने के बजाय अपनी जरूरत के मुताबिक अलग-अलग राज्यों में मित्र दलों को बैसाखियों की तरह इस्तेमाल करती है। कांग्रेस अपने प्रभाव क्षेत्र में मित्र दलों को जगह नहीं देना चाहती, पर क्षेत्रीय दलों के प्रभाव क्षेत्र में अपने लिए सम्मानजनक स्थान की अपेक्षा रखती है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और वाम दलों के साथ गठबंधन में लड़ी कांग्रेस को 39 सीटें दी गईं, लेकिन वह मात्र छह ही जीत पाई। इसके विपरीत नेशनल कॉन्फें्रस अपने हिस्से की 55 में से 42 सीटें जीतने में सफल रही। हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की अप्रत्याशित हार के बाद ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों द्वारा दी जा रही नसीहत का संकेत साफ है कि देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल जमीनी राजनीतिक सच का सामना करे। दिल्ली में लोकसभा चुनाव में गठबंधन में कांग्रेस को तीन सीटें देनेवाली आप ने तो ऐलान कर दिया है कि विधानसभा चुनाव वह अकेले लड़ेगी। वैसे अगर हरियाणा में आप की स्थिति शून्य है तो वही हैसियत दिल्ली में कांग्रेस की है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन जारी रखने की बात तो कही है, लेकिन बिना चर्चा के ही निकट भविष्य में उप चुनाव वाली 10 विधानसभा सीटों में से छह के लिए सपा उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं।
‘इंडिया’ गठबंधन में कांग्रेस के व्यवहार पर उठते सवालों का सीधा असर महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों में दिख सकता है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा- कांग्रेस-राजद गठबंधन की सरकार है, जबकि लोकसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना, शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस सत्ता पाने की आस लगा रहे हैं। बिहार में भी अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां राजद और वाम दलों के गठबंधन में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टनर है, पर पिछली बार उसकी चुनावी सफलता की दर निराशाजनक थी। लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के प्रभाव वाले राज्यों में अपनी भूमिका बढ़ाना चाहती है, लेकिन उसकी चुनावी सफलता की दर विश्वास नहीं जगाती। देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल होने के नाते कांग्रेस दावा ज्यादा सीटों पर जताती है, पर संगठनात्मक कमजोरी और वोट बैंक बिखराव के चलते जीत कम सीटें पाती है। यह विरोधाभास गठबंधन राजनीति में कांग्रेस की राह और ‘इंडिया’ की चुनावी चुनौतियां दुष्कर ही बनाएगा।
— राज कुमार सिंह

Hindi News / Prime / Opinion / हरियाणा चुनाव : छोटे दलों से दूरी कांग्रेस पर पड़ी भारी

ट्रेंडिंग वीडियो