बात सही भी है। चिंता की बात यह है कि एक तरफ हम अपने देश में ही गांधी के विचारों को भुलाते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ दुनिया उनके बताए रास्ते में तमाम तकलीफों का समाधान तलाशती नजर आती है। गांधी की ग्राम स्वराज की परिकल्पना को ही लें। इसे साकार करने के बजाए गांवों से न केवल कुटीर उद्योगों को खत्म करने का काम खूब हुआ बल्कि शिक्षा प्रणाली में कौशल विकास को तो बिल्कुल ही गायब कर दिया गया। गांवों को कमजोर नहीं किया जाता तो न कोरोना के दौर में शहरों से पलायन के भयावह हालात बनते और न दूसरी समस्याएं खड़ी होतीं।
विकास के मामले में भी हमने गांधी का मॉडल अपनाने के बजाय पश्चिमी मॉडल का अनुसरण करना शुरू कर दिया। बापू पश्चिमी सभ्यता को उसकी अर्थव्यवस्था के मॉडल के साथ ही नकारते थे। वे कहते भी थे कि ‘इस धरती पर सभी की जरूरतों के लिए तो पर्याप्त है लेकिन एक मनुष्य के लालच के लिए यह धरती भी कम है।’ गांधी के इसी विचार के पीछे ट्रस्टीशिप की अवधारणा भी है। उनका मत था कि उत्पादन की धुरी गांव होना चाहिए जबकि हमारी सरकारों ने गांवों को स्वावलम्बी बनाने के प्रयासों में रुचि लेना ही बंद कर दिया। बेरोजगारी, गरीबी एवं भुखमरी जैसी मूलभूत समस्याओं का लगातार बढऩा भी गांधी के विचारों की उपेक्षा का नतीजा ही है।
समूची दुनिया में कहीं न कहीं जब आतंकवाद और युद्ध के हालात बनते दिखाई देते हैं तो गांधी का अहिंसा का सिद्धांत कारगर हथियार के रूप में नजर आता है। गांधी जयंती के मौके पर उनके सिद्धांतों पर चलने की कसमें तो खूब खाई जाती हैं लेकिन जो लोग गांधी के नाम के सहारे सत्ता तक पहुंचते हैं वे भी उनकी बताई राह पर चलना नहीं चाहते। हकीकत यह है कि मानव सभ्यता की रक्षा के लिए गांधी के सिद्धांत सर्वदा प्रासंगिक रहने वाले हैं। खास तौर पर ऐसे दौर में जब हिंसा के अलग-अलग रूप दुनिया के सामने आ रहे हैं।