टोक्यो पैरालंपिक खेलों में भारत को मिली उपलब्धियां खेलों को प्रोत्साहन देने की दिशा में अच्छी शुरुआत है। ओलंपिक में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण जीतने के करिश्माई प्रदर्शन ने एक सौ चालीस करोड़ भारतीयों में नया मंत्र फूंका है। इसके बाद पैरालंपिक खेलों की स्वर्णिम सफलता सरकार के सामने एक चुनौती भी है। खेलों में पदक दिलाने वाले खिलाडिय़ों की तारीफ करने भर से काम चलने वाला नहीं है। चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि दुनिया में आबादी में दूसरे नंबर वाला भारत खेलों में इतना पीछे क्यों है? हम पैरालंपिक से पहले सम्पन्न हुए ओलम्पिक खेलों में ४८वें नंबर पर रहे थे। एक-दो करोड़ की आबादी वाले देश हमसे अधिक पदक कैसे जीत लेते हैं? इन सवालों का जवाब सरकार को तलाशना होगा। ये भी विचार करना होगा कि अगर छोटा राज्य हरियाणा खेलों में सफलता के झंडे गाड़ सकता है तो उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य पीछे क्यों हैं? सिर्फ ओलंपिक खेलों के समय ही खिलाडिय़ों की चिंता क्यों की जाए? खेल दिवस पर रस्म अदायगी कितने सालों से निभाई जाती रही है लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? खेलों में राजनेताओं की बढ़ती भूमिका पर भी विचार होना चाहिए। खेल संघों पर राजनेताओं ने कब्जा जमा रखा है।
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अच्छी प्रतिभाओं को तलाशने की जगह खेल संघ अपने-परायों की राजनीति का अड्डा बनकर रह जाते हैं। राजनेताओं को चिंता खेलों के विकास की नहीं, अपने रुतबे की है। ऐसे में खेलों का विकास कैसे हो? ओलंपिक-पैरालंपिक की सफलता को यदि और आगे पहुंचाना है तो खेलो के लिए समर्पित लोगों को आगे लाकर राजनीति को दूर करना होगा। तभी खेलों में भी अपेक्षित प्रगति संभव होगी।