scriptपत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-अपराध और जन सन्नाटा | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 22nd August Crime And Public Silence | Patrika News
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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-अपराध और जन सन्नाटा

पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार की आपराधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं देश में, जिस प्रकार अपराधी बेखौफ होते जा रहे हैं, अपराधियों को राजनेता-पुलिस और गद्दारों का आश्रय प्राप्त हो रहा है, उससे तो लगता है कृष्ण गीता कहकर स्वयं ही सो गए।

जयपुरAug 22, 2024 / 10:49 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥’(गीता 4/7)

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ॥’ (गीता 4/8)

पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार की आपराधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं देश में, जिस प्रकार अपराधी बेखौफ होते जा रहे हैं, अपराधियों को राजनेता-पुलिस और गद्दारों का आश्रय प्राप्त हो रहा है, उससे तो लगता है कृष्ण गीता कहकर स्वयं ही सो गए। अथवा जिनके हृदयों में बैठे हैं, वे सो गए। कुछ तो हुआ है। यौन शोषण से जुड़ा एक नया शब्द जन्मा है देश में ‘निर्भया’। कौन निर्भय है-पीड़िता, मृतक, आरोपी, गद्दार, समाज के रक्षक दल? समझ में नहीं आ रहा। इस तरह के जघन्य अपराधों में नेता अपनी रोटियां सेंकते हैं, पुलिस की पीड़िताओं और उनके परिवारों से कोई सहानुभूति नहीं। वह तो सबूत मिटाने वालों की मदद में जुट जाती है।
अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। हर समाज में अपराधी होते हैं। कहीं कम, कहीं ज्यादा। इस देश में धर्म की रक्षार्थ कई धार्मिक संगठन बने हुए हैं। आज तो सब नपुंसक से जान पड़ते हैं। कोई न तो इतिहास को टटोलता, न ही अपने समूह के उद्देश्यों को। इतने ‘निर्भया’ काण्ड होते जा रहे हैं, किसी समूह, युवा संगठन, सम्प्रदाय का खून नहीं खौल रहा। सरकार में तो वोटों की राजनीति महत्वपूर्ण है, देश या सामाजिक सौहार्द महत्वपूर्ण नहीं है।
देश की राजधानी दिल्ली में हुए वर्ष 2012 में निर्भया काण्ड से लेकर उत्तरप्रदेश के उन्नाव, जम्मू-कश्मीर के कठुआ, हैदराबाद व राजस्थान के भीलवाड़ा जिले तक में दरिंदगी की घटनाएं हुईं। आज भी देश में एक के बाद एक निर्भया काण्ड होते ही जा रहे हैं। अत्याचारियों से निपटने का कहीं संकल्प ही नजर नहीं आता।
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हाल ही में कोलकाता के एक रेजीडेंट डॉक्टर को निर्भया बनाया गया। आज पूरे देश में इसके खिलाफ आक्रोश-प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। अन्य नृशंस अपराधों के मामले भी सामने आ रहे हैं। अलग-अलग मामलों में सरकारों और जनता की अलग-अलग प्रतिक्रिया होती है। उदयपुर के कन्हैया काण्ड में ऐसी प्रतिक्रिया क्यों नहीं हुई? न्यायालय भी सिविल केस की तर्ज पर कितने ऐसे मुकदमों को चलाए जा रहे हैं। उदयपुर के हाल ही के स्कूली छात्र हत्याकाण्ड को पुलिस क्यों दबाने की कोशिश कर रही है। इस घटना के अगले दिन ही जयपुर में हत्याकाण्ड हुआ। कोलकाता में भी भीड़ ने अस्पताल जलाया। अपराधी का घर तो नहीं जलाया।
समझ में क्या आ रहा है कि जहां मृतक/मृतका के पीछे कोई संगठन होता है, वह मुद्दा आगे तक चला जाता है। कोलकाता का मुद्दा देशव्यापी बन गया।

धर्म के रखवाले जागें

अजा-जजा का मुद्दा देशव्यापी बन गया। पीछे संगठन आ गए। छुट-पुट बिखरी हुई घटनाओं को पुलिस दबाने में लगी रहती है। उनको वे दुर्घटनाएं लगती ही नहीं। क्या कोलकाता की और गांव की साधारण लड़की की इज्जत अलग-अलग है? तब नेता/पुलिस उनके साथ अन्याय क्यों करते हैं और जनता क्यों मूक दर्शक खड़ी रहती है? जब तक दोनों घटनाएं समान नहीं लगेंगी, लोकतंत्र लागू कैसे माना जाएगा। जब तक कन्हैया का हत्यारा फांसी के तख्ते पर नहीं चढ़ जाता, कानून और न्यायप्रणाली आंखों पर पट्टी बांधे अंधी या निष्प्रभावी ही मानी जाएगी। आपराधिक मामलों से घिरे सैंकड़ों सांसद/विधायक बनकर न्यायप्रणाली के आभूषण बने बैठे हैं। लोकतंत्र को गौरवान्वित कर रहे हैं।
अजमेर का बहुचर्चित अश्लील फोटो ब्लैकमेल कांड तो न्याय में देरी व अपराधियोेें को राजनीतिक संरक्षण का बड़ा उदाहरण है। बत्तीस साल पुराने इस मामले में कल ही कोर्ट का फैसला आया है। पीड़िताओं को न्याय अब भी पूरा नहीं मिला। इस काण्ड में राजनेताओं के नाम भी सामने आए थे। अफसरशाही ने न जाने ऐसा क्या किया कि किसी का बाल तक बांका नहीं हुआ।
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इसका एक ही हल है। ऐसी बिखरी घटनाओं को सरकार और पुलिस के भरोसे न छोड़ा जाए। आज तो हमारे कई जनप्रतिनिधि क्षुद्र स्वार्थों के चलते सांपों को दूध पिला रहे हैं। समाज और देश की चिन्ता उनको नहीं है। उनको जनता ही बेनकाब कर सकती है। जनता, ब्रजभूषण शरण सिंह को भी जानती है, केन्द्रीय मंत्री रहे अजय मिश्र टैनी के पुत्र को भी जानती है, कोलकाता काण्ड के आरोपियों को भी जानती है और इनको बचाने वाले लोगों को भी। करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति को नष्ट करने और निरपराध लोगों को मारने से अच्छा है, आरोपियों को ही पकड़कर कानून के हवाले करें। सरकारें उनकी सम्पत्तियों पर तुरन्त बुलडोजर चला दें।
देश भर के आंकड़ों पर नजर डालें तो महिलाएं कहीं सुरक्षित नहीं दिखती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में बलात्कार के वर्ष 2017 में 32559, 2018 में 33356, 2019 में 32032 और वर्ष 2020 में 28046 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2020 में देश में प्रतिदिन औसतन 77 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2021 में भारत में बलात्कार के 31677 मामले दर्ज हुए और इनमें सबसे अधिक 6337 मामले राजस्थान में दर्ज हुए। इस वर्ष देश में प्रतिदिन औसतन 87 मामले दर्ज हुए। 2022 में भारत में बलात्कार के 31516 मामले दर्ज हुए और इनमें सबसे अधिक 5399 मामले राजस्थान में दर्ज हुए। इस वर्ष भी देश में प्रति दिन औसतन 86 मामले दर्ज हुए।
आज यह समस्या केवल भारत में ही नहीं है। असुर तो हर देश में तीन चौथाई होते हैं। हाल ही में ढाई साल की बच्ची के साथ जोधपुर में क्या हुआ-क्या कम हृदय विदारक था? ब्रिटेन में प्रतिवर्ष बीस लाख ऐसे अपराध होते हैं। ऐसे संगीन अपराधों को आतंकवाद की श्रेणी में लाने के लिए वहां कानून प्रस्तावित है। हमारे नीति निर्माताओं को ये मुद्दे अहम ही नहीं लगते। किसी भी सदन में कठोर कार्रवाई करने, कठारे नियम बनाने, अपराधियों को प्रश्रय देने वालों के विरुद्ध कानून बनाने की गंभीर चर्चा नहीं होती। किसी नेता या मंत्री से इस्तीफा नहीं मांगा जाता यदि उसकी संतान आरोपी साबित हो जाती है। बल्कि उसको बचाने के लिए पुलिस भी प्रयास करती है। राजनेता और अफसरों का गठजोड़ जगजाहिर है। दोनों ही उल्टे-सीधे काम में एक-दूसरे के साझेदार रहते हैं। जांच की बारी आती है तो नेता इसलिए बच जाते हैं क्योंकि अफसर वही करते हैं जो नेता चाहते हैं। फिर तबादला व पदस्थापन करने वाले भी नेता ही होते हैं तो दबाव में तो आएंगे ही। तब निर्भया कैसे बचेगी?
अब जनता जागे, धर्म के रखवाले जागें, अपराधियों में भय पैदा हो, तब कुछ अन्तर आएगा। वरना कृष्ण भी झूठे पड़ जाएंगे। युवा नपुंसक ही कहलाएगा-नशे में डूब जाएगा। कोई क्षत्रिय किसी अबला की रक्षा करने आगे नहीं आएगा। कोई सिख रक्षा का भार भविष्य में नहीं उठाएगा। कोई कुरान हाथ में लेकर, अपनी इबादत में नारी सम्मान बचाने की सौगंध नहीं खाएगा। सारे अखाड़े हवा में अपनी-अपनी शाही सवारी के लिए तलवारें चलाएंगे। देश की चिन्ता कौन करेगा? संसद को नेताओं को वेतन बढ़ाने की, विश्वास मत के लिए रातभर काम करने की या नोटबंदी की चिन्ता तो ‘प्राथमिकता’ से दिखाई देती है। देश में अराजकता का, हत्या-बलात्कारों का जो दौर चल पड़ा, अतिक्रमण के मामले जहां स्वयं नेताओं के संरक्षण में होने लगे, घुसपैठियों को बसाने का जो नासूर देशभर में फैल गया, इन सबकी चिकित्सा का काम कोई सरकार हाथ में नहीं लेती। हर राज्य और केन्द्र को ऐसे कठोर कानून बना देने चाहिए जिनके आगे अपराधियों की रूह कांप उठे।

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