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परम्परा नगर विनाश की

जयपुर विकास प्राधिकरण का ध्येय वाक्य है- ‘जहां नगर नियोजन एक परम्परा है’। हमारे विद्वान जयपुर विकास आयुक्तों की कारगुजारियों के कारण अब शायद नया ध्येय वाक्य गढ़ना पड़ेगा- जयपुर विकास प्राधिकरण- जहां नगर विनाश एक परम्परा है।

जयपुरAug 01, 2024 / 11:35 am

भुवनेश जैन

भुवनेश जैन

जयपुर विकास प्राधिकरण का ध्येय वाक्य है- ‘जहां नगर नियोजन एक परम्परा है’। हमारे विद्वान जयपुर विकास आयुक्तों की कारगुजारियों के कारण अब शायद नया ध्येय वाक्य गढ़ना पड़ेगा- जयपुर विकास प्राधिकरण- जहां नगर विनाश एक परम्परा है। इन आयुक्तों की विद्वता के चलते अपने नगर नियोजन के लिए दुनिया भर में विख्यात जयपुर शहर सबसे अनियोजित शहरों की जमात में शामिल होता जा रहा है।
तीन साल बाद जयपुर की स्थापना को तीन सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे। लगभग 250 वर्षों तक शहर का वाकई नियोजित ढंग से विकास हुआ। चौकडियां, चोपड़ें, चौड़ी सड़कें। परकोटे के बाहर भी जो कॉलोनियां बसी-वे भी व्यवस्थित रूप लिए हुए थीं। जगह-जगह बाग-बगीचे। ताल-कटोरा, जलमहल जैसे जलाशय। इसके बाद जब 1982 में जयपुर विकास प्राधिकरण का गठन हुआ- व्यवस्थित विकास चौपट होने की शुरुआत हो गई। और पिछले 15-20 वर्षों में तो ‘अनियोजन’ के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए गए। कहने को 2011 का दूसरा मास्टर प्लान बनाया गया, पर इसकी धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। इस दौरान 21 आयुक्तों के पास जे.डी.ए. की जिम्मेदारी रही- इनमें से पांच- उषा शर्मा, डी. बी. गुप्ता, अशोक जैन, एन. सी. गोयल और सुधांशु पंत तो मुख्य सचिव के पद तक पहुंचे। पर कोई भी शहर के व्यवस्थित विकास को बर्बाद होने से नहीं रोक पाया।
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अच्छी शुरुआत

स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने इस बर्बादी को हवा दी। शहर को घेरने वाली अरावली की पहाड़ियों पर वोटों की फसलों के रूप में कच्ची बस्तियां बसा दीं। रामगढ़ बांध और अन्य जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों को बेच दिया। वन क्षेत्रों पर कब्जे करवा दिए। बाद में आये आयुक्तों के अधीन तो जयपुर विकास प्राधिकरण जमीनों की खरीद फरोख्त का अड्डा बन गया। जहां जमीन मिली- भूमाफियाओं से मिलकर योजनाएं काट दी गईं। भले ही वहां पानी, सड़क, परिवहन जैसी मूलभूत सुविधाएं हों या ना हों। इन योजनाओं में जमीन खरीदने वाले भले ही रोते रहें। भूमाफिया को अपने फायदे और अफसरों को कमीशन से मतलब रह गया। फ्लाई ओवरों और ओवरब्रिजों के नाम करोड़ों रुपए के ऐसे कार्य करा दिए गए जो आज भी या तो अनुपयोगी हैं, या उन्हें तोड़ कर दुबारा बनाना पड़ रहा है।
जे.डी.ए. के अफसरों का ‘जमीन’ से लगाव छूटने का नाम नहीं ले रहा। अब 2047 के मास्टर प्लान में जे.डी.ए. का दायरा 2940 वर्ग किलोमीटर से बढ़ा कर 4000 वर्ग किलोमीटर किया जा रहा है। इसके लिए 725 गांवों की बलि ली जा रही है। वहां की खेती-बाड़ी, पशु-पक्षी, कला-संस्कृति, तीज-त्योहार सब पर भूमाफिया और जे.डी.ए. अफसर गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। कब वहां की जमीन पर निर्णय लेने का अधिकार मिले और कब लालच और विनाश का नया खेल खेला जाए।
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पवित्रता भंग

अफसोस की बात हमारे अब तक के नगरीय विकास मंत्री और सरकार के मुखिया भी इन अफसरों के दिखाए हवाई किलों के जाल में फंसते गए। क्या पता अनजाने में या जान-बूझकर। उन्हें उन ग्रामीणों की पीड़ा से भी कोई सरोकार नहीं, जिनके गांवों को शहरी क्षेत्र में आ जाने से ग्रामीण विकास योजनाओं के लाभों से वंचित रह जाना पड़ेगा। यहां तक कि ‘मनरेगा’ जैसे योजनाएं तक लागू नहीं हो पाएंगी।
शहर के विकास का मतलब सुविधाओं का विकास होता है। इसमें कम क्षेत्र में ज्यादा सुविधाएं देने की योजनाएं बनती हैं। वर्टिकल विकास, सैटेलाइट टाउन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, हरियाली, शुद्ध वातावरण को ध्यान में रखा जाता है। पर हमारे आयुक्तों के लिए विकास का एक ही मायने है- जमीन कब्जे में लो और बेचों। यह विकास का नहीं, विनाश का रास्ता है।

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