इजरायल का हिजबुल्लाह-ईरान के साथ युद्ध अपरिहार्य माना जा रहा है। इसे जायज भी ठहराया जा रहा है, क्योंकि इसके बिना वे उत्तरी इजरायल के नागरिकों पर हमले करना बंद नहीं करेंगे। 8 अक्टूबर से हिजबुल्लाह ने इजरायल पर रॉकेट दागने शुरू कर दिए। इससे 2006 में संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में हुआ वह संघर्ष विराम समझौता टूट गया, जो 2000 में इजरायल के लेबनान से वापस लौटने के बाद हुआ था। दक्षिण लेबनान से इजरायल की पूर्ण वापसी के बाद लेबनान के राष्ट्रीय हितों को तत्काल कोई खतरा नहीं था और यही कारण है कि लेबनान की आधिकारिक सेना इस युद्ध में शामिल नहीं है। हालांकि, इजरायल के खिलाफ ईरानी एजेंडे और खाड़ी देशों के साथ उसके बढ़ते संबंधों के कारण हिजबुल्लाह इजरायल के खिलाफ शत्रुता नहीं छोडऩा चाहता है। हिजबुल्लाह ने ईरान की खातिर लेबनान के लोगों को इस थकाऊ लड़ाई में घसीटा है।
ईरान और उसके सहयोगियों ने यह दांव खेला था कि 7 अक्टूबर को हमास के अप्रत्याशित हमले के बाद इजरायल जवाबी हमला करने में सक्षम नहीं होगा। हमास द्वारा कई मोर्चों पर किए गए हमलों का मुकाबला करने के लिए इजरायल तैयार न था। इजरायली खुफिया तंत्र और सीमा सुरक्षा बलों की पूरी तरह नाकामी ने हमास के आतंकियों को सैकड़ों इजरायली नागरिकों को गाजा में बंधक बनाने का मौका दे दिया। फिर भी, इजरायल ने अपनी प्रारंभिक विफलता पर काबू पा लिया और वह हिजबुल्लाह पर बहुआयामी हमला करने में सक्षम रहा और ईरान के साथ टकराव को भी झेल सका। उनकी लड़ाई जारी है और 1 अक्टूबर को ईरान के हमले के बाद इजरायल द्वारा देर-सबेर ईरान पर एक और हमला किए जाने की उम्मीद है। सवाल यह नहीं है कि इजरायल हिजबुल्लाह और ईरान के खिलाफ एक वैध युद्ध लड़ रहा है या नहीं, बल्कि असली सवाल यह है – सैन्य हमलों के बाद क्या होगा? लेबनान में इजरायल कब तक लड़ेगा? क्या यह एक बार फिर दक्षिण लेबनान पर कब्जा करेगा, जैसा कि उसने 1982 में यासिर अराफात और उनके गुरिल्ला युद्ध के खिलाफ किया था? लेबनान के साथ इजरायल के पहले युद्ध से आज कुछ सबक भी हैं।
1982 में इजरायली सेना एरियल शेरोन के नेतृत्व में यासिर अराफात और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) को बेरूत से बाहर निकालने के लिए गई थी, ताकि वे इजरायल के उत्तरी इलाकों पर हमला न कर सकें। अब हिजबुल्लाह के मामले में भी यह मुद्दा वैसा ही है। तब रक्षा मंत्री एरियल शेरोन ने बेरूत शहर पर बड़ा हमला किया और यासिर अराफात को वहां से भागकर ट्यूनीशिया जाना पड़ा। सैन्य दृष्टिकोण से यह एक सफल अभियान था, पर यह इजरायल के भीतर एक अत्यधिक अलोकप्रिय युद्ध था और इसके बाद एरियल शेरोन को इस्तीफा देना पड़ा था। लाखों इजरायली लोग तब लेबनान युद्ध के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए सडक़ों पर उतरे थे, मुख्य रूप से बेरूत के सबरा और शतीला शरणार्थी शिविरों में हजारों फिलिस्तीनियों के नरसंहार के विरुद्ध। लेबनान में सांप्रदायिक हिंसा के कारण यह हमला लेबनानी ईसाई फालांज मिलिशिया द्वारा किया गया था, न कि इजरायली सेना द्वारा। फिर भी, एरियल शेरोन को एक इजरायली जांच आयोग द्वारा पूरे घटनाक्रम के दौरान मौन साधे रखने का दोषी पाया गया था। दीर्घकालिक दृष्टि से इजरायल का पहला लेबनान युद्ध निष्फल रहा था।
बेरूत के मामले में इजरायल का इतिहास ध्यान देने योग्य है। सबसे पहले, हिजबुल्लाह को अशक्त करने के बावजूद इजरायल उसे लेबनान से बाहर नहीं निकाल पाएगा। हिजबुल्लाह यों तो मुख्य तौर पर ईरान का एक एजेंट है, फिर भी इसने लेबनान के बहुत गहराई तक विभाजित समाज और राजनीति में शिया समुदाय के लिए मददगार की भूमिका निभाई है। दूसरा, इजरायल के लिए दक्षिणी लेबनान पर पुन: कब्जा स्वाभाविक रूप से कठिन होगा। वहां हिजबुल्लाह के गुरिल्ला लड़ाके अधिक ताकतवर हैं, जो 1982 में नहीं थे। इसके अलावा उसके अमरीका व यूरोपीय सहयोगी भी ऐसे इरादे के विरोध में हैं। तीसरा, इजरायली नेताओं को सैन्य हमलों के बाद लेबनान सरकार के साथ एक राजनीतिक और कूटनीतिक समाधान खोजना पड़ेगा जो कि हिजबुल्लाह को दीर्घकाल में अलग-थलग करने का रणनीतिक अवसर हो सकता है। अंतत:, गाजा में युद्ध समाप्त किए बिना इजरायल लेबनान में अपने युद्ध के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन और सहानुभूति हासिल नहीं कर पाएगा। इजरायल के पिछले युद्धों से मिले सबक बताते हैं कि सैन्यवाद और प्रतिशोध पर अत्यधिक निर्भरता इजरायल के सुरक्षा हितों के लिए बेहतर साबित नहीं होगी।