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हिन्दी या मातृभाषा

क्या संवैधानिक दर्जा देना मात्र ही सम्मान है। अच्छा होगा हम ‘हिन्दी दिवस’ को मातृभाषा दिवस बना दें। हमारे अनेक प्रान्तों के पिछडऩे का कारण भी हिन्दी भाषा रही है।

Sep 12, 2021 / 06:40 am

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

जीवन सम्प्रेषण मात्र है। भाषा सम्प्रेषण का व्यावहारिक स्वरूप है। हमारा प्रत्येक कर्म भी भाषा का रूप ही है। मेरी आंखों की भाषा, सुनने-करने की भाषा, अंगुलियों की भाषा, हाव-भाव-मुद्राओं की भाषा और यहां तक कि मौन भी मेरे लिए भाषा ही है। क्या शरीर भाषा के बिना नहीं चल सकता? जी हां, यह संभव नहीं है। क्योंकि शरीर लक्ष्मी (मिट्टी) से बनता है और भाषा (शब्द) सरस्वती (नाद) से बनती है। लक्ष्मी सोम है, सरस्वती अग्नि है। यह सृष्टि अग्नि-सोम के योग से ही बनती है।
सिद्धान्त यह है कि अग्नि से जल बनता है, जल से पृथ्वी का निर्माण होता है। हमारी पृथ्वी समुद्र के जल से ही बनती है। हमारा शरीर भी जल से ही निर्मित होता है। सूर्य की रश्मियां जल को वाष्प बनाकर ऊपर ले जाती हैं। यह जल, बादल बनकर पुन: पृथ्वी पर बरसता है। अन्न और प्राणियों को उत्पन्न करता है। हम अन्न खाते हैं- शरीर के धातु बनते हैं, शुक्र बनता है, नए शरीर का निर्माण होता है। अत: ब्रह्म कहते हैं अन्न को। शरीर निर्माण के बाद इसी अन्न से ओज बनता है, मन बनता है। कहते हैं-

जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।
जैसा पीवे पाणी, वैसी होवे वाणी।।

मन यदि सात्विक है तो वाणी भी सात्विक ही होगी।

शरीर का सीधा सम्बन्ध भूगोल के साथ होता है-अन्न के कारण। जलवायु के कारण। अनाज का जो शरीर है, वह पृथ्वी से बनता है। ठोस भाग अन्तरिक्ष के दधि समुद्र से, स्नेहन भाग घृत समुद्र से निर्मित होता है। कच्चा धान दूधिया कहलाता है। घृतभाग अन्तरिक्ष का तत्व है। आग का घन रूप कहा जाता है। द्युलोक से बसन्त ऋतु में मधु का वर्षण होता है। सभी अन्नों/प्राणियों में विशेष मिठास आ जाता है। सूर्य से ऊपर सोमलोक है, जिसकी आहुति से सूर्य की जीवनयात्रा चलती है। सोम की अमृत संज्ञा है। चन्द्रमा के मधु से हमारा मन बनता है। अमृत का परिचय रस -स्वाद- रूप में प्राप्त होता है। जिस अन्न को खाकर गर्भ में शरीर का निर्माण होता है, वही अन्न शरीर को स्वस्थ रख सकता है। स्वस्थ होने का अर्थ है-स्वयं में स्थित।
जिस प्रकार अध्यात्म के चार अंग हैं-शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा, वैसे ही वाक् (वाणी) के भी चार ही अंग हैं-परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी।

‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुब्र्राह्मण ये मनीषिण:।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।’ ऋक् 1.164.45

वाणी के चार ही पाद हैं जिनको विद्वान जानते हैं। इनमें तीन पाद बुद्धि रूपी गुहा में रहते हैं। वेद महर्षियों ने ॐ भू: भुव: स्व: को भी चार पाद कहा है। जिस शरीर में आत्मा तथा सब इन्द्रियां प्रतिष्ठित हैं, जो इस आत्मतत्व को नहीं जानता, वह इस शरीर से क्या लाभ उठाएगा। उसका तो मानव जीवन ही व्यर्थ हो गया। जो जान लेगा वह जन्म-मरण के चक्र से ही मुक्त हो जाएगा।
अक्षर नष्ट नहीं होता। उसमें कमी नहीं आती। यही वाणी के रथ का अक्ष कहलाता है। आत्मा का हृदय अक्षर ही होता है। शरीर और वाणी दोनों की वाक् संज्ञा है। ध्वनि ही स्वर-वर्ण-पाद-वाक्य बनती है। ध्वनि उठती परा से है। पश्यन्ति से, मध्यमा से गुजरते हुए वैखरी (स्थूल वाणी) बनती है। निश्चित ही शरीर की संरचना का बड़ा महत्व है भाषा में। जहां मन और शरीर एक होकर बोलेंगे, वही मातृभाषा होगी। भाषा भी बीज और धरती पर आधारित होती है।
दो दिन बाद हिन्दी दिवस है। हिन्दीभाषी लोगों के लिए मातृभाषा दिवस। शेष प्रान्तों के लिए विरोध दिवस। मैं जब राजस्थान पत्रिका शुरू करने के लिए चेन्नई गया-लगभग 25 वर्ष पूर्व। मुझे एक ही उत्तर मिला-वापिस नहीं जा पाओगे। मैं बैंगलूरु चला गया। विरोध कुछ ही कम था। आजादी के सात दशक बाद भी हम इन भावनाओं का सम्मान नहीं कर पाए। क्या संवैधानिक दर्जा देना मात्र ही सम्मान है। अच्छा होगा हम ‘हिन्दी दिवस’ को मातृभाषा दिवस बना दें। हमारे अनेक प्रान्तों के पिछडऩे का कारण भी हिन्दी भाषा रही है। गैर-हिन्दीभाषी पूर्वांचल और दक्षिणांचल के नागरिक वर्षों तक केन्द्रीय सेवाओं में नहीं पहुंच सके। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों में प्रवेश से वंचित रहे। अंग्रेजों की तरह हिन्दी भाषी भी उन क्षेत्रों पर राज कर गए।
एक ओर हम गर्व करते हैं कि देश की अधिकांश भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, वहीं संस्कृत को भी ‘माननीयों’ ने राजनीति का मोहरा बनाकर जनजीवन से बाहर कर दिया। मां-बेटे बाहर, देश केवल हिन्दी के हाथ में। और हिन्दी स्वयं अंग्रेजी की दासी। राज तो आज भी अंग्रेजी का ही है। नीतियों का झण्डा भी और क्रियान्वयन भी । रस्सी तो हिन्दी की भी जल चुकी है। हिन्दी का स्नातक भी अच्छा निबन्ध नहीं लिख सकता। तब हिन्दी दिवस के मायने क्या रह गए! हिन्दी तो वेंटिलेटर पर ही है। हिन्दी का भविष्य इंटरनेट, मोबाइल, ए.आई. के भरोसे ही टिका है। पढऩे-लिखने का अभ्यास तक छूट रहा है। पत्रकारों तक में वर्तनी की अशुद्धियां जमी हुई हैं। शिक्षा नीति बनाने वाले भी अंग्रेजी-दां है। हिन्दी तो ‘गरीब की जोरु सबकी भाभी’ है।
आज राष्ट्र को एक भाषा में गूंथ लेना सहज नहीं है। न ही किसी के पास इच्छा है। वोटों की राजनीति ने राष्ट्रीय एकता को धूल चटा दी। साम्प्रदायिकता का नया जलजला अंगड़ाई लेता दिखाई दे रहा है। भाषा संघर्ष को नई दिशाएं मिलेंगी इसका प्रभाव भी गैर-हिन्दी भाषी प्रान्तों में अलग तरह से पड़ेगा। जब शुद्ध हिन्दी समझ में नहीं आती तब व्यक्ति या तो मिश्रित भाषा बोलता है अथवा अवसर देखकर मातृभाषा को ओढ़ लेता है। स्वान्त: सुखाय यानी कि मातृभाषा।

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