तब प्रत्येक आत्मा में कृष्ण की शक्तियों के भी अंश उपलब्ध हैं। उनको विकसित करने के लिए उनके साथ (भीतर) जीना पड़ेगा। आज की मां बाहर-शरीर को जीना चाहती है- जो मायापुरी है। वहां कृष्ण नहीं हैं। कृष्ण ही गुरु भाव है-कृष्णं वन्दे जगद् गुरुम्। आत्मा अविद्या से ढका रहता है। यह ढक्कन शरीर रूपी स्थूल आवरण है। बुद्धि के अपने आवरण हैं, मन के अपने। अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश ही अविद्या के रूप हैं। ये ही मन में कामना पैदा करते हैं- कर्म कराते हैं- फल भोग करने के लिए नए-नए जन्म और योनियों के चक्कर कटवाते हैं।
इनको विद्या के प्रभाव से निष्फल किया जाता है। धर्म-ज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य ये चार विद्या हैं। मानव को जीने के लिए पुरुषार्थ (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) का मार्ग सौपा गया है। हमारे सभी कर्मों के प्रत्यक्ष निर्णय मन और बुद्धि ही करते हैं। दोनों विरोधाभासी हैं। बुद्धि सूर्य से पैदा होती है, उष्ण होती है। चान्द्रमन सौम्य होता है। बुद्धि विषयों पर जाती है, मन पर विषय आते हैं। इच्छा का आधार-नकल करने में, प्रत्यक्ष से प्रभावित होने- देखा-देखी करने में मन ही नेतृत्व करता है। बुद्धि हित-अहित का विचार करती है। परिस्थिति पर चिन्तन करती है।
ब्रह्मज्ञान ही ज्ञान है, इसे न जानना अविद्या है। आत्म-विकास का नाम ऐश्वर्य है, संकोच-अस्मिता है। आत्मा में सम्पूर्ण ऐश्वर्य विद्यमान है, किन्तु अस्मिता के कारण सदा अभावग्रस्त रहता है। वह सदा शून्य भाव में ही परिणत हो जाता है।
असन्नेव स भवति असद् ब्रह्मेति वेद चेत्।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद सन्तमेनं ततो विदुरिति।। (तैत्ति. उप.)
अर्थात्- यदि कोई ‘ब्रह्म’ को ‘असत्’ रूप समझता है तो वह स्वयं असत् (अस्तित्वहीन) बन जाता है; किन्तु यदि वह ‘ब्रह्मÓ को इस रूप में जानता है कि वह है, तो लोग उसे उसी की तरह जानते हैं।
आसक्ति मुक्त जीवन ही वैराग्य है। आसक्ति ही ग्रन्थिबन्धन का कारण है। हठधर्मिता-दुराग्रह अभिनिवेश है। अविद्या मन की चंचलता का हेतु है, वहीं विद्या मन को नियंत्रण में रखती है। विद्या-अविद्या दोनों ही माया के रूप हैं। कृष्ण मन है, माया कामना है, त्रिगुण कामना का स्वरूप है, कर्म परिणाम देता है। मन अव्यय पुरुष (श्वोवसीयस) है। हमारे मन में आनन्द-विज्ञान गौण रहते हैं। अत: मन सौम्य रूप की प्रधानता रखता है। यही कामना है- सृष्टि बीज है, यही मातृभाव है। स्त्री भीतर पुरुष ही है। यही दिव्यता है। यही अद्र्धनारीश्वर भाव यहां भी है- स्थूल अवस्था में। सूक्ष्म अवस्था में पुरुष ही बीजप्रदाता हैं। बीज सोम है- विष्णु है। ब्रह्मा पिता है।
स्वयंभू का मन हृदय है – अन्तर्यामी है। (शत. 3.8.3.8)। परमेष्ठी मन भारद्वाज ऋषि है (शत 8.1.1.9)। सूर्य का मन – सौम्य है (छा.उप.)। मन प्रधान है। चन्द्रमा का मन श्रद्धा है (तै. ब्रा. 2.8.8)। पृथ्वी का मन द्युलोक है (ऐ.ब्रा. 5.3.3)।
मन के अन्य भी कई स्वरूप हैं-मनो वै सम्राट् परमं ब्रह्म (शत. 14.6.10.15)। ब्रह्म वै प्रजापति: (शत. 13.6.2.28)। मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा (शत.14.6.1.7)। हृदयं वै यज्ञस्य ब्रह्मा (शत. 12.8.2.3)। चन्द्रमा वै ब्रह्मा (शत. 12.1.1.2)। मन एवेन्द्र: (शत. 10.4.1.6)।
मन ही मां है। मन ही चन्द्रमा है, सृष्टिकर्ता है। अग्नि में सोमाहुति के बिना सृष्टि नहीं होती। यथाण्डे तथापिण्डे के अनुसार मां का निर्माण भी पंचपर्वा विश्व के समान ही है। वह स्वयंभू से अव्यक्ता, परमेष्ठी से अव्यय, सूर्य से बुद्धि, चन्द्रमा से मन एवं पृथ्वी से पिण्ड शरीर लेकर उत्पन्न होती है। वह अव्यय-अक्षर-क्षर पुरुषों की समष्टि है और ब्रह्म की माया भी है। यही उसकी सन्तान को भी प्राप्त होता है।
मन के निर्माण में ब्रह्म और माया दोनों की भूमिका है। मन का केन्द्र ब्रह्म रहता है और परिधि माया। केन्द्र में ही ब्रह्म भी है और केन्द्रबल/हृद्शक्ति- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आग्नेय हृद् प्राण भी हैं। ब्रह्म जहां स्थिर है, वहीं हृद्शक्ति गति-आगति रूप क्रियाभाव है। केन्द्र ही मन है। इसमें सोम और इन्द्र प्राण दोनों रहते हैं। यही मन चिदंश (परमात्मा का अंश-जीवात्मा) से युक्त होकर ज्ञानमय (प्रज्ञा) हो जाता है। प्रज्ञान मन में सोम (भूतमात्रा), चिदंश (ज्ञान), प्राण मिलकर प्रत्येक इन्द्रिय का अधिष्ठान बनता है। विशुद्ध सोम ही मन की पूर्णता है। तीनों हृद्-प्राणों की तीन शक्तियां-महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली ही समष्टि रूप में दुर्गा (मां) है। माया की पुत्री है। मां का हृदय हैं।
मां दिव्य होती है, देह मात्र नहीं। हर मां के मन का स्वरूप, शक्ति और सामथ्र्य समान होता है। उसके पुरुष रूप में भी चारों वर्ण-तीनों गुण-चारों आश्रम रहते हैं। इन्हीं के विकास से वह असुर-हन्ता बनती है। यही उसके गुरुत्व का यात्रामार्ग है। गर्भस्थ शिशु के पास भी ये ही सारे संस्थान होते हैं। मां अपने शरीर, मन, बुद्धि, अव्यय और अव्यक्त के साथ शिशु के शरीर-मन-बुद्धि-अव्यय और अव्यक्त को जोड़कर उसकी सम्पूर्ण आत्म संस्था का निरीक्षण कर सकती है। उसे भीतर देखने का अभ्यास हो जाता है। आत्मा दोनों का ही सूर्य से बनता है- एक ही है। अव्यय मन एक है।
बिना किसी साधन या ध्वनि के संवाद बना रहता है। शरीर से शरीर का निर्माण- योनि के अनुरूप, मन प्रकृति की कामना संग्रहित रखने के लिए, बुद्धि ज्ञान एवं सुरक्षा के लिए। तीनों आत्मा के साधन हैं। इनका सही उपयोग सिखाती है मां। किस देश काल में जीना है, वैसे ही आवरणों का ज्ञान, मुक्ति के लिए संघर्ष, जीवन को ऋणमुक्त करना, खानदान का अनुशासन, उसकी मर्यादाएं- अपेक्षाएं, स्वयं की अपूर्ण कामनाएं जैसे विषयों को ग्रहण और त्याग के साथ जीना सिखाती है। मां का सम्पर्क-सम्बन्ध मन से मन का है, बस। अनपेक्षा भाव भी उसके गुरुत्व का प्रमाण है।
गीता में नरक के तीन द्वार कहे गए हैं-काम, क्रोध, लोभ। मोह बड़ा भाई है। इसी में जीवन-मृत्यु है। जीवन का प्रारंभ कामना से होता है। मां क्रोध-लोभ पर विजय सिखाती है, किन्तु वह स्वयं मोहजाल से बाहर नहीं आ पाती। ऋतभाव के कारण उसका मन चंचल भी रहता है, गतिमान होने के कारण रजोगुण में प्रवृत्त भी रहती है। अत: सन्तान पर नियंत्रण की कामना (स्नेह रूप) भी सदा बनी रहती है। चूंकि वह स्वयं के लिए नहीं जीती इस दृष्टि से मां बीज रूप भी है। जमीन में गड़कर मर जाना है। पेड़ रूप लेती है। हर पत्ते से जुड़ी रहती है, कोई छोटा बड़ा नहीं है। उसका सपना मात्र संतान और परिवार की सुख-समृद्धि से जुड़ा रहता है।
मां भक्ति है, वात्सल्य है, श्रद्धा है, प्रेम है। बुद्धि में ये सब नहीं है। मां मिठास और पिता रुक्षता है। आज तो मां भी रुक्ष होती जा रही है। अत: मन से अधिक बुद्धि से जुड़ी है। बुद्धि कभी जोड़ नहीं सकती, तोड़ती है, स्वार्थपरक-अहंकारयुक्त होती है। मां में न स्वार्थ है, न ही अहंकार। इन अर्थों में गुरु और मां समान होते हैं। दोनों ही व्यक्ति को भीतर से जोड़ते हैं। एक पशु को मानव बनाती है। दूसरा मानव को देव बनाता है। समर्पण पूर्ण हो तो ईश्वर भी बना सकता है। मां विद्यालय है, गुरु विश्वविद्यालय। यहां शरीर नहीं ‘आत्मा’ शिक्षित होता है।
क्रमश:
स्वास्थ्य और चिकित्सा एक नहीं
स्तुत्य संकल्प
धरतीपुत्रों का अपमान
जलजला सिर पर है
घोषणाएं काफी नहीं
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