धर्म आधारित कर्म तब संभव है, जब व्यक्ति पहले सत्वगुण की ओर अग्रसर हो, श्रद्धा से युक्त हो। यज्ञ को भी विधि से किया जाए, मन को साधन समाधान (निश्चय) करके फल की आशा न करके किया जाए (१७/११)। मन की प्रसन्नता, ईश चिन्तन, मन का निग्रह, अन्त:करण की पवित्रता मानस तप कहलाता है। दान में भी कोई अपेक्षा भाव न हो, सुपात्र को दिया जाए, तब ही उसका अर्थ होता है।
इन सब कृत्यों में महत्त्वपूर्ण है-त्याग। यूं तो संन्यास को ही हम त्याग का पर्याय मानते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि तप का निषेध तो त्याग में भी नहीं है। दान संन्यासी भी कर सकता है। प्रश्न यह है कि त्याग में क्या आसक्ति है ? क्या हम त्याग में या संन्यास में प्रतिफल की कामना रखते हैं?मोक्ष की कामना भी नहीं। क्लेश के भय से किया गया भी त्याग नहीं हो सकता। जीवन में कर्मत्याग संभव नहीं है, अत: कर्मफल त्याग की सलाह दी गई है।
विश्व के प्रत्येक धर्म में त्याग की अपनी महिमा है। मन की चंचलता के कारण विषयों में आसक्ति बनी रहती है। गीता के अनुसार-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। (2.59)
जो इन्द्रियों द्वारा विषयों को नहीं ग्रहण करते उनके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु उनकी आसक्ति निवृत्त नहीं होती। आत्मा स्वभाव से असंग होता है। आसक्ति एक प्रकार की चिकनाई है जो आत्मा और विषय को प्रज्ञान मन से चिपका देती है। इस स्नेहन द्रव्य या चिकनाई को आसक्ति कहते हैं। विषय का अच्छा लगते जाना ही राग है।
यह चिपकन अनुकूल है तो राग, प्रतिकूल है तो द्वेष बन जाती है। राग के कारण व्यक्ति मुग्ध होकर विषय की ओर बढ़ता जाता है। मन कमजोर पड़ जाता है, रोक नहीं पाता। राग का विपरीत भाव ही द्वेष है। राग में विषय के साथ योग है, समर्पण है। द्वेष में विषय से हटते हुए विषय के साथ योग है। राग से अधिक द्वेष में दृढ़ता है।
द्वेषी मनुष्य द्वेष की विद्युत को तो ले लेता है, किन्तु स्वयं की विद्युत नहीं देता। इसका अर्थ है कि द्वेषी मनुष्य भी आगन्तुक द्वेष्य धर्मों को तो ग्रहण कर लेता है। किन्तु इससे सामने वाले की कोई हानि नहीं होती, बल्कि स्वयं द्वेषी अपनी ही हानि कर बैठता है।
अत: गीता आसक्ति त्यागपूर्वक बुद्धियोग का उपदेश करती है। ज्ञानी कर्म के त्याग को, तो वैरागी आसक्ति त्याग को ही त्याग मानता है। गीता का कर्म के संदर्भ में प्रसिद्ध श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (2.47)
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (2.48)
जहां भी त्याग को लक्षित किया जाता है, वहां आसक्ति मुक्ति प्रथम अनिवार्यता मानी गई है। कुछ विद्वानों का मत है कि आप जिसे पकड़ते हैं, उससे ही मुक्त होने की आवश्यकता पड़ती है। आप किसी को भी पकड़ते हैं, तो स्वयं भी व्यक्ति-वस्तु से बन्ध जाते हैं। न पकडऩा, न छोडऩा। न कामना पैदा हुई, न त्याग करने की आवश्यकता। न कोई कर्म हुआ, न कर्म त्याग की आवश्यकता ही पड़ी।
अत: त्याग मूल में काम-फल-आसक्ति का त्याग ही हुआ। परित्याग भी आसक्तिपूर्वक नहीं होना चाहिए, सहजभाव से हो। क्योंकि मैंने आसक्ति छोड़ दी, यह कहने से आसक्ति नहीं छूट जाती है। भीतर में विषय चल रहा है। यह त्याग तो ग्रहण से ज्यादा भयंकर है। द्वेष को घृणित कृत्य मानकर छोडऩा भी आसक्ति का रूप ही है।
मूल में ऐसा त्याग किया नहीं जाता अपितु बुद्धियोग द्वारा, आत्मबोध के द्वारा स्वत: उत्पन्न होता है। यह निष्काम योग है जो कि किया नहीं जाता, होता है। छोड़ा नहीं जाता, न ही छोड़ पाएंगे। ऐसा कहना भी विषय के प्रति द्वेष आसक्ति प्रकट करता है। निर्लेप बनकर राग-द्वेष विषयों में लोक संग्रह की दृष्टि रखे रहना आसक्ति का सहज त्याग है।
समत्व लक्षण वैराग्य योग ही सहज परित्याग का आधार बनता है। ऐसी स्थिति में कुछ न छोडऩा ही सब-कुछ छोडऩा है। सब-कुछ छोडऩा ही सब-कुछ ग्रहण कर लेना है। त्याग और ग्रहण का यही वैज्ञानिक स्वरूप है। सर्वगुण ही निर्गुण है, सर्वाकार ही निराकार है। शब्द द्वारा त्याग-ग्रहण की व्याख्या असंभव है।
एक संसारी व्यक्ति और एक वैरागी दोनों सभी कार्य समान भाव से करते हैं। वैरागी भी संसारी की भांति संसारी बना रहेगा। इसके कर्म पूर्ण व्यवस्थित होंगे। यही तो वैराग्य है। ‘नानवाप्तमवाप्तव्यं वत्र्त एव च कर्मणि’ कहने वाले कृष्ण स्वयं ऐसे ही थे। सभी शास्त्रोक्त कर्म करते रहे, न फकीर बने, विवाह किए, पत्नियां थीं, सन्तानें थीं, सखा थे, रमण किया, सब-कुछ एकचित्त होकर किया।
भगवान फिर भी भगवान थे। भग का अर्थ है-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य-यानी विद्या भाव और वह भी अच्युत। यही तो पूर्ण ग्रहणात्मक पूर्ण परित्याग का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसी को वैराग्य बुद्धियोग कहा है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। (गीता 6.46)
कर्म, भक्ति और ज्ञान को क्रमश: वाक्-प्राण-मन कलाओं से सम्बद्ध माना है। ये अव्यय की सृष्टि साक्षी कलाएं हैं। वैराग्य योग भगवान का अपना है। शेष तीनों पहले भी थे। गीता में कुछ संशोधित हुए, किन्तु गौण हैं। वैराग्य बुद्धि येाग के बाद दूसरा स्थान भक्तियोग का, तीसरा कर्मयोग, चौथा ज्ञानयोग का है।
प्रत्येक प्राणी की विषयों की ग्रहणता, अनुभव, योग्यता उसके संचित संस्कार से सम्बन्ध रखती है। विषय के प्रति राग की जननी भी जन्म-संस्कार रूप रागासक्ति ही होती है। इसी को भीतर की मूलासक्ति कहा है। यही बाह्य विषयासक्ति है।
प्रत्येक इन्द्रिय व्यापार में मानस कामना का अनिवार्य सहयोग रहता है। यह सहज कामना ही ईश-कामना है। इसमें बुद्धि प्रधान, मन गौण रहता है। कृत्रिम कामना जीव कामना है। इसमें असंग बुद्धि गौण तथा ससंग मन प्रधान रहता है।
क्रमश:
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