scriptतंत्र ही परतंत्र करता है | gulab-kothari-article-sharir-hi-brahmand-21 October 2023 | Patrika News
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तंत्र ही परतंत्र करता है

Rajasthan PatrikaGulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-तंत्र ही परतंत्र करता है

Nov 03, 2023 / 11:37 pm

Anand Mani Tripathi

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शरीर ही ब्रह्माण्ड – तंत्र ही परतंत्र करता है

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। (गीता 9.32)

अर्थात्-स्त्री-वैश्य-शूद्र-पापयोनियां भी मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इस श्लोक का मूल तो वर्ण व्यवस्था में ही निहित है। पुरुष और प्रकृति के स्वरूप में निहित है। अग्नि-सोम के सिद्धान्त में निहित है। गीता में कहा है कि कृष्ण विश्व के एकछत्र स्वामी हैं। उनकी सृष्टि में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। सभी 84 लाख योनियों के भीतर वे स्वयं प्रतिष्ठित हैं। तब छोटा कौन? एक ही दूसरी योनि में प्रवेश करता है। गीता सभी 84 लाख योनियों पर समान रूप से लागू होती है। देव-असुर तक भी इस तंत्र के बाहर नहीं हैं। वर्ण क्योंकि आत्मा का स्वरूप ही है। जातियां कर्म आधारित हैं।


मन-प्राण-वाक् को आत्मा कहते हैं। यही ज्ञान-क्रिया-अर्थ है। यही ब्रह्म-क्षत्र-विट् है। यही सत्व-रज-तम है। तीनों के स्वरूप और कर्म निश्चित हैं। हमारे हृदय में तीन अक्षर प्राण प्रतिष्ठित हैं-ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र। ये भी ब्रह्म-विट्-क्षत्र वर्ण के ही हैं। पृथ्वी का वर्ण शूद्र है। अत: सभी पार्थिव प्राणी जन्म से शूद्र कहे गए हैं-जन्मना जायते शूद्रो संस्काराद्विज उच्यते। पृथ्वी के प्राण गणपति भी और पृथ्वी के देव-पूषादेव भी शूद्र हैं। जातियों की व्यवस्था पृथ्वी की (मानव समाज की) भिन्न है। ब्रह्माण्ड में तो योनियों को ही जातियां कहते हैं। वर्ण और जातियां एक नहीं हैं। वर्ण आत्मा का गुण है, मानव समाज में जातियां कर्म से बनी हैं। इन पर वर्णों की परिभाषा लागू नहीं होती। न पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जलचरों आदि में ही जातियां होती हैं। हां, उनके वर्ण होते हैं।


साधारणत: सन्तान की जाति उसके माता-पिता की जाति से ही मानी जाती है। लेकिन सन्तान का वर्ण भी मां-बाप के जैसा ही हो, यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिए कुम्हार का बेटा कुम्हार जाति का तो होगा, किन्तु वह किसी भी वर्ण का हो सकता है। वर्ण सन्तान के आत्मा का होगा। यहां माता-पिता का भी अपना वर्ण होगा। पिता-पुत्र का वर्ण भेद संभव है। पिता यदि वर्णानुसार अपने कर्म में प्रतिष्ठित है, तब तो उसी वर्ण का जीव मां के गर्भ में प्रवेश करेगा। अन्यथा सन्तान बड़ी होने पर अपना कर्म क्षेत्र स्वयं बदल लेगी।


वर्ण को हम साधारण पहचान मान लेते हैं जो कि नहीं है। अन्न का भी वर्ण होता है। ‘अन्नाद् भवन्ति भूतानि’ अन्न से ही भूतमात्र पैदा होते हैं। अन्न भूगोल के साथ-साथ बदलता है। मिट्टी से अन्न और अन्न से शरीर की प्रकृति भी बदलती जाती है। वर्ण भी एक कारण है शरीर की आकृति के बदलने का। प्रकृति चन्द्रमा के प्रभाव से बदलती है और आकृति पृथ्वी के प्रभाव से बदलती है। तीसरा पहलू है-अहंकृति- जिसका आधार हमारा पिता सूर्य है। तीनों में एक आपसी समानता रहती है। किसी एक के बदलने पर तीनों बदल जाते हैं। हम इन तीनों में से प्रकृति को बदल सकते है। सभी प्रकार के यज्ञ-तप-दान-उपासना क्रम इसी उद्देश्य से किए जाते हैं। किन्तु सात्विक भाव भी अन्तत: सृष्टि का ही अंग है। कृष्ण कहते हैं-निस्त्रैगुण्य भवार्जुन!


अन्न से भी मन बदलता है, प्रकृति बदलती है। वर्ण नहीं बदलता। यह आत्मा की दिशा होती है-विषयों की ओर आकर्षण की। संसार में विषय भी अनन्त हैं। विरुद्ध विषय भी हैं। कर्म हैं, अकर्म हैं, विकर्म हैं। विशिष्ट कर्म भी हैं। सब लोग सभी कर्म नहीं कर सकते। कुछ शरीरजीवी, कुछ बुद्धिजीवी, तो कुछ मनस्वी या मनोजीवी होते हैं। प्रजापति के सर्वज्ञ-हिरण्यगर्भ-विराट् भावों से प्राज्ञ-तैजस-वैश्वानर पूर्णता सम्पन्न पुरुष ही मानव कहलाया।


श्रेष्ठता के अहंकार में प्रकृति के नियमों की अवहेलना करते हुए अपने काल्पनिक विधि-विधान बना डाले। इस कारण उसकी शक्तियों का ह्रास तय है। यह प्रकृति का अतिक्रमण ही तो है। क्योंकि मानव को केवल आकृतिमूला ही मान लिया। यह तो एक स्थूल पिण्ड मात्र है।


मानव का मन-चान्द्र है, रजोगुण प्रधान है। यहीं चान्द्रदेव प्राण प्रतिष्ठित है, जिससे मानव के प्रकृति/मनोमूलक वर्ण का विकास हुआ है। जो कि प्रत्येक मानव का भिन्न है। वर्ण भी विभिन्न हैं, जिनकी दृष्टि से देव प्राण के वर्ग भेद से मानव विभिन्न श्रेणियों में प्रतिष्ठित है। आकृति देखकर इस प्रकृति का आकलन कदाचित नहीं हो सकता। शरीर को कर्मप्रधान कहा जाता है। शरीर मात्र आधारित मानव तो कर्ममूला ही कहा जाएगा, किन्तु मन/प्रकृतिमूलक, देव प्राण वाले वर्ण की अभिव्यक्ति को तो जन्म आधारित ही कहा जाएगा। सम्पूर्ण मानव जाति की आकृति तो एक ही समान है, किन्तु प्रकृतिमूलक आठ भागों-वर्ण तथा अवर्ण में विभक्त है। इसी आधार पर मानवों के गुणधर्म व्यवस्थित हुए। इस वर्ण व्यवस्था के अभाव में ही वर्णसंकरता की नई फसल उगने लगी। जैसे वैज्ञानिक अन्य जीवों-अन्न-फलादि पर प्रयोग कर रहे हैं। ठीक वैसे ही परिणाम मानव समाज में भी दृष्टिगोचर होने लगे हैं।


हम प्रकृति से उपजे हैं। मां-बाप आकृति देते हैं। प्रकृति चन्द्रमा से, अहंकृति सूर्य से मिलती है। हम प्रकृति को चुनौती तो दे सकते हैं, किन्तु हमारी जीत काल्पनिक ही होगी। क्योंकि हम स्वयं को नहीं देख सकते, किसी अन्य को भी नहीं देख सकते। हम अदृश्य आत्माएं हैं। शरीर एक दर्पण मात्र है, आश्रय है।


आत्मा के तीन ही अंग हैं-मन, प्राण, वाक्। शरीर निर्जीव है, स्वयं कुछ करता नहीं है। इसको ‘सर्विस इण्डस्ट्री’ की जरूरत पड़ती है। ये सारा क्रम तो अर्थ- पदार्थ मात्र का ही विस्तार है। विट् गुण ही इस क्षेत्र का विस्तार करता है। विट् वर्ण कृषक और गोपालक से शुरू होकर कुम्हार-लुहार-खाती-स्वर्णकार-चर्मकार-चौकीदार आदि सभी कार्यों से जुड़ा होता है। इस वर्ण वाले कला-संगीत-हस्तकलाओं में अधिक प्रवृत्त होते हैं। सभी जातियों में सभी वर्ण तो उपलब्ध रहते हैं। शूद्र शब्द जातिवाचक न होकर आत्मा का गुणवाचक है। आज वर्ण का स्थान जाति शब्द ने ले लिया है, जबकि जाति से तो सभी मानव हैं।

भारत में कर्म-कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धान्त प्रधानता लिए हुए हैं। पाश्चात्य शिक्षा में इनका कोई स्थान ही नहीं है। वहां तो मात्र शरीर है जो प्रत्येक प्राणी का भी होता है। मनुष्य के सिवाय सभी योनियां भोग योनियां हैं। अत: वहां शरीर की प्रधानता अनिवार्य है। मानव जाति कर्मयोनि है। यहां भोग भी है, रोग भी है और योग भी है। पशुवत जीने वालों के लिए योग का मार्ग नहीं खुलता। उनका आत्मा द्रवणशील होने से सदा चंचल ही रहता है। जैसा कि अर्जुन ने कहा था-

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। (6.34)

ऐसी स्थिति में मनुष्य पराधीन अनुभव करता है। जहां स्वयं का कल्याण करने की असमर्थता है, आश्रय के बिना जीवन यात्रा सुगम-सुखपूर्वक नहीं, वही पराधीनता है। ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) तथा क्षत्रिय (क्षमतावान-शक्तिवान-प्राणवान) दोनों पराधीन नहीं होते। यही ज्ञान-कर्ममय सृष्टि का मूलाधार हैं। वैश्य-शूद्र सृष्टि हैं, स्त्री भी सृष्टि है- उसका बीज न होने से स्रष्टा नहीं हो सकती। पाप योनियों में आसुरी सम्पदा अधिक रहती है। वैश्य-कृषक-गौ पालक-सेवक-स्त्री आदि अन्य के आश्रित रहते हैं। फिर भी भक्ति और ईश्वर प्राप्ति के लिए ये समान रूप से स्वतंत्र होते हैं। एक ही ईश्वर की संतान हैं, कर्मफल-भोग के कारण परतंत्रता (देहिक मात्र) है। आत्मिक रूप से पूर्ण स्वतंत्र हैं। सभी अन्न हैं, सभी अग्नि हैं। सभी परतंत्र हैं।

क्रमश:

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