scriptजीव के यात्रा मार्ग | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 21 jan 2023 journey path of Life | Patrika News
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जीव के यात्रा मार्ग

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: जिस प्रकार एक सेटेलाइट ऊपर जाते हुए अलग-अलग स्तर पर अपने विभाग छोड़ता जाता है, उसी प्रकार आत्मा के आवरण भी जिस लोक में चढ़ते हैं उसी लोक में हटते भी जाते हैं… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-
 
 

Jan 22, 2023 / 02:13 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीव के यात्रा मार्ग

शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीव के यात्रा मार्ग


Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: हमारे जीवन के तीन स्तर हैं-अधिदैव, अधिभूत, अध्यात्म। इनमें शरीर (वाक्) अधिभूत है, प्राण अधिदैव है तथा मन अध्यात्म है। इनको ही स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर भी कहते हैं। स्थूल शरीर शुद्ध मैटर-पदार्थ है, सूक्ष्म शरीर प्राण (ऊर्जा) है तथा कारण शरीर आधार है। मन-प्राण-वाक् अव्यय पुरुष का सृष्टि भाग है, पदार्थ भाग है। मन के ऊध्र्वगामी होते ही, सारा पदार्थ ऊर्जा की ओर बढ़ता जान पड़ता है। आनन्द, विज्ञान, मन ऊर्जा के क्षेत्र हैं। ऊर्जा ब्रह्म है, पदार्थ माया है। अग्नि ऊर्जा है, सोम पदार्थ है। दोनों सदा साथ रहते हैं। तारतम्य बदलता रहता है। इसी प्रकार मन, प्राण वाक् भी सदा साथ रहते हैं तथा आत्मा कहलाते हैं।

अग्नि-सोम के तारतम्य में जब अग्नि की प्रधानता होती है, वस्तु का प्रसार बढ़ता है, जैसे पुरुष का। सोम की प्रधानता तो पदार्थ में है। जहां अग्नि है, वहां सोम गौण है और जहां सोम प्रधान है, वहां अग्नि गौण है। पुरुष में अग्नि प्रधान, सोम भीतर गौण रहता है। स्त्री भी भीतर से पुरुष (गौण) ही है। सोम के अभाव मेें अग्नि मन्द पड़ जाता है। हमारे शरीर से निरन्तर अग्नि बाहर निकलता रहता है।इसकी आंशिक पूर्ति तो अन्तरिक्ष की आर्द्रता से होती रहती है। शेष पूर्ति हम भोजन के द्वारा करते हैं। जड़-चेतन पदार्थों की समान प्रक्रिया है। जड़ भोजन नहीं कर सकते।

सोम पदार्थ है जो अग्नि में आहूत होकर निर्माण का कारक बनता है। सोम की ऋत संज्ञा है-जिसके केन्द्र एवं परिधि न हो। जैसे वायु-आकाश-जल आदि। ये बिना आश्रय-सत्य- के नहीं रह सकते। लकड़ी सोम है- जलती है, किन्तु इसके भीतर भी अग्नि रहता है।

तभी अरणी मन्थन से अग्नि प्रकट होता है। जल के भीतर भी अग्नि रहता है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन ऊर्जा-पदार्थ ही तो हैं। दृश्य विश्व अग्नि है। अग्नि-सोम यज्ञ से प्रथम उत्पत्ति महत् लोक में होती है। पंचाग्नि के यज्ञों की शृंखला से स्थूल सृष्टि का स्वरूप प्रतिपादित होता है।
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हमारे शरीरों का प्रारूप भी यही है। पुरुष अग्नि है, स्त्री सौम्या कहलाती है। पुरुष में भीतर सोम है, शुक्र सोम है। स्त्री अग्नि है रज रूप में। हमारा शरीर सूक्ष्म प्राणों से बना होता है, अधिदैवत होता है। यहां अग्नि-सोम भी दिव्य स्वरूप में अदृश्य रहते हैं। अक्षर सृष्टि है। शरीर क्षर है, अपरा प्रकृति का अंग है। प्राण परा प्रकृति का विश्व है। प्राणायाम की विशेष क्रियाओं से प्राणों का अग्नि-सोमात्मक यज्ञ होता हे। गीता में इसके कई स्वरूप दिए हैं।

उदाहरण के लिए-
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।। (गीता 4.27)
अर्थात्-योगी इन्द्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं को ज्ञानयुक्त आत्मसंयम रूप अग्नि में हवन करते हैं।

इसी प्रकार-
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।। (गीता 4.25)
अर्थात्-अन्य योगीजन देव पूजन यज्ञ करते हैं। कुछ अन्य परमात्मा रूप अग्नि में आत्मरूप यज्ञ का हवन करते हैं। यह यज्ञ हमारे कारण शरीर से जुड़ा रहता है।

प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति (सोम) को उठाकर ऊपर शिव तक ले जाया करते हैं। शक्ति मूलाधार में तथा ऊर्जा (शिव) सहस्रार में प्रतिष्ठित रहते हैं। शिव-शक्ति का यह मिलन ही परात्पर की पहली सीढ़ी है-अव्यय है। यहां से पुन: संसार की ओर मन फिसल सकता है।

किन्तु जैसे ही शक्ति शिव से युक्त हुई, यह अद्र्धनारीश्वर परात्पर स्वरूप बनता है। पुरुष भी है, प्रकृति भी है। प्रकृति की यहां सुप्तावस्था में केवल ब्रह्म की- निर्विशेष की कल्पना शेष रह जाती है। इसी को शास्त्रों में अद्वय की स्थिति- जहां दूसरा नहीं- कहा है। फिर भी ब्रह्माग्नि में भीतर तो सोम है ही।

इस क्रम को जीव के आने के क्रम से जोड़कर देखना कुछ असहज है। ब्रह्म ही पुरुष रूप स्वयंभू प्रजापति है, प्राणों का लोक है। इन्हीं प्राणों के तपन से श्रद्धा सोम द्रवीभूत होकर आप: लोक- परमेष्ठी- को उत्पन्न करता है। स्वयंभू और परमेष्ठी ही मूल में आकाश और वायु के लोक हैं। भृगु-अंगिरा प्राण भी परमेष्ठी लोक के मनोता प्राण हैं।
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दोनों में अग्नि-सोम हैं। केवल प्रधानता के कारण एक भृगु (पदार्थ) तथा दूसरा अंगिरा अग्नि है। ब्रह्मा और विष्णु (स्वयंभू-परमेष्ठी) के आगे मह:लोक स्थित है। यह सप्त लोकों का केन्द्र (चौथा) है। सूर्य का जन्म ब्रह्मा-विष्णु के संयोग से होता है। सूर्य अपने ग्रहों के साथ मह:लोक में परमेष्ठी लोक की परिक्रमा करता है। कृष्ण कह रहे हैं-
मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। (गीता १४.३)

यहां जीव पैदा होता है। आकाश और वायु के साथ यहां तेज (अग्नि) जुड़ जाता है। वर्ण-प्रकृति-अहंकृति-आकृति जुड़ती है।जीव का अगला पड़ाव अन्तरिक्ष लोक में पर्जन्य होता है। यह भुव लोक है-जल नामक, चौथा महाभूत जीव के साथ जुड़ता है। पांचवा और अन्तिम महाभूत पृथ्वी है।

पृथ्वी की योनि में पर्जन्य के वर्षण से अन्न पैदा होता है। औषधि-वनस्पति पैदा होते हैं। ये सब हमारे अन्न रूप पूर्वज हैं। जीव का प्रथम स्थूल शरीर यही अन्न (84 लाख योनियों का) है। यही शरीर के वैश्वानर अग्नि में आहूत होकर पंच भौतिक शरीर का निर्माण करता है। पंच भौतिक पृथ्वी से अन्न तथा अन्न से शरीर की उत्पत्ति होती है।

अत: शरीर को भी मिट्टी ही कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म का बीज पंचाग्नि सिद्धान्त से पंचभूतों से आवरित होता है। आत्मा इनके केन्द्र में रहता है। जिस प्रकार एक सेटेलाइट ऊपर जाते हुए अलग-अलग स्तर पर अपने विभाग छोड़ता जाता है, उसी प्रकार आत्मा के आवरण भी जिस लोक में चढ़ते हैं उसी लोक में हटते भी जाते हैं।

जीव के आने का मार्ग सातों लोकों के बीच से है, किन्तु लौटने का मार्ग भीतर के ब्रह्माण्ड से सुलभ है। सप्त चक्रों का मार्ग, स्पन्दनों के माध्यम से पार किया जा रहा है। नाद (आकाश) से आने वाला जीव आकाश में समा जाता है।

सर्वप्रथम पंचभौतिक शरीर पृथ्वी में समाता है। पृथ्वी के अग्नि में ठण्डे शरीर (सोम) को समर्पित कर दिया जाता है। जीव जल तत्त्व के साथ बाहर निकलता है। चन्द्रमा पर पहुंचता है, जो जलतत्त्व का मूल स्थान है (अन्तरिक्ष)। यहां जल तत्त्व छूटता है भोगकाल में। पुन: सूर्य की ओर बढ़ता है, (पिता है)। शेष जल भी सूर्य रश्मियां सोख लेती हैं। शुद्ध अग्निमय आत्मा (त्रिभौतिक) सूर्यलोक में स्थित होता है (प्राणलोक)।

इसके आगे जीव की गति नहीं है। कुछ ही साधक आत्माएं सूर्य का भेदन कर पाती हैं, जो पुन: पृथ्वी पर नहीं लौटती। सूर्य का ऊपर का आधा भाग अमृत लोक से जुड़ा है। नीचे का आधा भाग मृत्यु लोक से। नीचे रह जाने वाले जीव पुन:, भोग काल के अन्त में, नया जन्म ले लेते हैं। सूर्य भेदन करने वाले जीव भी मह:, जन:, तप:, सत्यम् लोकों में विचरण करते रहते हैं। वे भी एकाएक मुक्त नहीं हो जाते।

प्रत्येक लोक का अपना शरीर होता है। उनका पुनर्जन्म भी इन्हीं लोकों में कहा है। महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन के प्रश्न करने पर कृष्ण ने जो उत्तर दिए, वे अनुगीता के नाम से जाने जाते हैं। जीवात्मा सम्बन्धी बहुत सी जानकारी उसमें उपलब्ध है।

क्रमश:

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