scriptतुम ही मैं, मैं ही तुम | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 18 march 2023 You are me, I am you | Patrika News
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तुम ही मैं, मैं ही तुम

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। मेरे लिए कर्म करो और फल भी मुझे ही अर्पण कर दो। तुम फल भोगने से मुक्त हो गए। तुम तो हो ही, जानते बस नहीं हो। भक्त का अर्थ भी ‘अंश’ ही है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Mar 19, 2023 / 09:51 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : तुम ही मैं, मैं ही तुम

शरीर ही ब्रह्माण्ड : तुम ही मैं, मैं ही तुम

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: गीता के सार रूप में कहा जा सकता है कि सभी प्राणियों का जन्म यज्ञ से होता है। पालन-पोषण भी यज्ञ से होता है। पुनर्जन्म या मोक्ष भी यज्ञ से होता है। यह यज्ञ, पुरुष और प्रकृति का है। हम तो निमित्त मात्र हैं, सामग्री हैं। यज्ञ के प्रति हमारा तो द्रष्टा भाव ही रहना चाहिए, कर्ता भाव नहीं। हमारा शरीर माया भाव है। जन्म से पूर्व भी नहीं था, मृत्यु के बाद भी नहीं होगा। कृष्ण कहते हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (2.47)
-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्म में भी आसक्ति न हो।
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (2.48)
-हे धनंजय तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।। (2.50)
-बुद्धि (समता) से युक्त मनुष्य पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। (18.66)
-सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा।


प्राणीमात्र का जन्म से लेकर मोक्ष तक का नक्शा बता दिया। हम कैसे इसका अर्थ समझते हैं, इन अर्थों को जीते हैं, यह हम पर ही निर्भर करेगा। क्योंकि यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सभी भूत प्रकृति (परा-अपरा) से उत्पन्न होते हैं तथा पुरुष सबका प्रभव (बीज) प्रलय है। (7/6)। इसका अर्थ यही है कि हमारा जन्म भी पुरुष और प्रकृति के यज्ञ से होता है।

अग्नि-सोम की युति ही यज्ञ है। हम ईश्वर का अंश कहलाते हैं-पुरुष ही ईश्वर है। सम्पूर्ण प्रकृति में एक ही पुरुष है-अव्यय पुरुष। शेष सब प्रकृति है। पुरुष की इच्छा ही पुरुष की प्रकृति है। इच्छा ही पुरुष की शक्ति होती है। क्योंकि इच्छा ज्ञान से ही पैदा होती है। ज्ञान ही पुरुष है।

ब्रह्म अकेला (काल्पनिक) था, सृष्टि नहीं थी। प्रलय काल था। ब्रह्म के मन में इच्छा पैदा हुई-एकोऽहं बहुस्याम्। इस इच्छा का नाम ही शक्ति है, माया है, क्षुधा है। ”या देवी सर्व भूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता।ÓÓ (दुर्गा सप्तशती) यह इच्छा ही ब्रह्म की शक्ति है। हमारी शक्ति भी यही इच्छा है। ब्रह्म-पुरुष की इच्छा से हम उत्पन्न हुए, हमारी इच्छा से ही हम लौटेंगे-जहां से आए थे।

सम्पूर्ण गीता का केन्द्र यह इच्छा ही है। यही मोक्ष है, यही नरक का द्वार है। इच्छा का केन्द्र मन है। इन्द्रियां मन के घोड़े हैं। मन की दो गतियां हैं-सृष्टि साक्षी और मुक्ति साक्षी। ब्रह्म का मन सृष्टि साक्षी होकर अधोगामी सृष्टि में विवर्त रूप लेता है। वही तय करता है कि मृत्यु के पश्चात् मुझे कहां जाना है। चूंकि मैं ही ब्रह्म हूं-अहं ब्रह्मास्मि- अत: मेरी इच्छा ही ब्रह्म की इच्छा मानी जाएगी।


यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।। (8.6)
-हे कौन्तेय! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस-उस योनि में ही चला जाता है।

सम्पूर्ण गीता के ज्ञान का मानव के लिए यही क्षण केन्द्र में हैं। सभी योग (कर्म-ज्ञान-भक्ति-बुद्धि) का लक्ष्य भी यही क्षण है। प्रत्येक मानव के बाहर जाने का मार्ग (मृत्यु) यही क्षण है। अन्य प्राणी चंूकि भोग योनियां हैं, उनके नियंत्रण में यह चिन्तन प्रक्रिया नहीं है। सच पूछो तो हमारे नियंत्रण में भी नहीं है। प्रकृति हमारे ज्ञान को वहीं केन्द्रित कर देती है, जहां अगले जन्म में ले जाना चाह रही है।

अत: जीवन में एक ही अभ्यास रहना चाहिए कि मेरी स्वयं की कोई इच्छा ही नहीं रहे। जो कुछ कर्म मेरे द्वारा किए जाएं, सब उसकी-प्रकृति की- ही इच्छा हो। मेरी इच्छा से होगा तो मुझे फल भोगने के लिए पुन: जन्म लेना पड़ेगा। मेरा मन मुक्ति साक्षी होगा, तब मेरा कर्म आनन्द भाव- समष्टि की ओर मुड़ेगा।

इस मोक्ष-मार्ग की बाधा भी मन की चंचलता ही है। मन इच्छाओं के निरन्तर प्रभाव से आक्रान्त रहता है। अर्जुन इस तथ्य को स्वीकारता है कि इस चंचलता का स्वरूप वायुवेग (तूफान) के समान है। इसके नियंत्रण का मार्ग कृष्ण देते हैं- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (6.35)


वैराग्य का अर्थ है कामना मुक्ति, निष्काम भाव। इसका प्रभाव ही तो है-
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
-वह जो (परब्रह्म) दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया।

प्रत्येक कर्म किसी फल को लक्ष्य बनाकर किया जाता है-संकल्प के साथ। फल प्राप्ति पर कर्म समाप्त हो जाता है। यदि कर्म के मध्य में- फल प्राप्ति से पूर्व- कर्म को छोड़कर- प्रकृति के हवाले कर दिया जाए, ईश्वर को अर्पण करके आगे बढ़ जाएं, तो फल आते समय आप वहां नहीं होंगे। जो वहां होगा-प्रकृति/पुरुष- उसे ही फल प्राप्त होगा।

कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। मेरे लिए कर्म करो और फल भी मुझे ही अर्पण कर दो। तुम फल भोगने से मुक्त हो गए। मेरे भक्त हो जाओ। तुम तो हो ही, जानते बस नहीं हो। ममैवांशो जीवलोके…। भक्त का अर्थ भी ‘अंश’ ही है। तुम्हारे भीतर जो तुम है, वह मैं ही हूं। तब फल चाहने वाले तुम कौन? क्या फल तुम्हारी इच्छा से आ सकेगा? क्या तुम फल के लिए दो-तीन जन्मों तक प्रतीक्षा कर सकोगे?


पुन: अपने भीतर झांककर देखो। तुम कहां हो। मैं ही तुम्हारे रूप में काम करता नजर आऊंगा। तुम यदि बीच में ही फल खाने वाले बने, तो तुम्हें ही दण्ड रूप में उसके फल खाने (भोगने) पड़ेेंगे। अत: जो तुम्हारा नहीं है, उसके प्रति आसक्ति छोड़ दो। जो मेरा है, उसे मेरे लिए छोड़ दो-मामेकं शरणं व्रज। मैं और तुम अलग नहीं हैं। तुम्हारी कामना को मेरे साथ जोड़ दो।

मैं पिता हूं, कामना माता है। कामना जब मुझ में आहूत हो जाएगी, शेष निर्विशेष ही रहेगा। यह दृष्टि ही वैराग्य है, इसी का अभ्यास रहना चाहिए, ताकि अन्तकाल में ‘भ्रान्ति’ को स्थान न मिले। मैं ही तुम्हारा गन्तव्य बना रहूं। कामनाएं सुप्त हो जाएं। बिना कामना के ब्रह्म अकेला कुछ नहीं कर सकता। वह तो स्वभाव से ही निष्काम है।

यज्ञ का अर्थ भी यही है। सोम की आहुति से निर्माण होता है। सोम तय करता है-निर्माण कैसा होगा। उसी की चिति होकर वस्तु पिण्ड का निर्माण होता है। अत: सौम्या की देवी उपाधि है। रेत की रज में आहुति से हमारा शरीर बना। सोम यज्ञ ने ही अन्न और दिक् सोमरूप हमारा पोषण किया। पंचाग्नि रूप यज्ञ से पृथ्वी तक लाकर स्थूल रूप दिया। कामना रूप सोम ने ही ब्रह्म के इच्छित कर्म करवाए। पूर्व कर्मों के फल भी भोगे।

कृष्ण कहते हैं कि मैं ही कर्ता, मैं ही भोक्ता रूप यज्ञ हूं। इसी सौम्या (माया) के कारण सृष्टि का प्रभव हुआ, इसी कामना की निवृत्ति से पुन: सृष्टि लीनता को प्राप्त हो जाती है। कामना ही ब्रह्म में आहूत हो जाती है।

क्रमश:

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