पंचाग्नि का सिद्धान्त है कि हमारा जन्म पांचवी सृष्टि में होता है। (1) देव सृष्टि-सावित्राग्नि योनि है, भृगु-अंगिरा युक्त परमेष्ठी-सोम ही रेत है। मातरिश्वा वायु-परमेष्ठी का भार्गव वायु-रेतोधा है। (2) वृष्टि सृष्टि-पर्जन्याग्नि योनि है, श्रद्धानामक चान्द्र सोम (सौरमण्डल का देवप्राण युक्त) रेत है। अन्तरिक्ष का पावक नामक वायु रेतोधा है। (3) औषधि सृष्टि-पार्थिव गायत्राग्नि योनि है, जलवृष्टि-सोम ही रेत है।
पार्थिव पवमान वायु रेतोधा है। (4) शुक्र सृष्टि-लोम-नखपर्यन्त व्याप्त वैश्वानर अग्नि (पुरुष शरीर में) योनि है, भुक्त अन्न सोम रेत है। अशनाया (भूख) सूत्रात्मक प्राणवायु रेतोधा है। (5) प्रजा सृष्टि-स्त्री गर्भाशय में प्रतिष्ठित शोणिताग्नि (अंगिरा प्राणघन योनि है), सौम्यशुक्र रेत है। नाभि स्थित ‘एवया’ मारुत रेतोधा है।
इन सब में आधिदेविक पदार्थों के आगमन का मार्ग चन्द्रमा है। अत: ऋतु रूप संवत्सर द्वारा पार्थिव प्रजा की प्रतिष्ठा है चन्द्रमा। चान्द्र सोम ही प्रवग्र्य रूप में ऋतसोम बनता है, ऋताग्नि में आहूत होकर षड् ऋतु को पैदा करता है। ‘ब्रह्मा कृष्णश्च नोऽवतु, चन्द्रमा वै ब्रह्मा कृष्ण…’ (शत. 13.2.7.7)। अत: चन्द्रमा/चान्द्र तत्त्व को (दिव्य पितृ प्राण गर्भित ऋतु पितर) पार्थिव प्रजा का प्रजनयिता (उत्पन्न करने वाला) माना गया है।
प्रत्येक शरीर पंचकोशीय है। तब क्या बीज भी एक शरीर नहीं है? एक गुठली को ध्यान से देखने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा। गुठली स्वयं बीज नहीं है, बीज का शरीर है। हमारा शुक्राणु बीज नहीं है, बीज का शरीर है। माता-पिता हमारे रेत-योनि नहीं हैं, शुक्राणु और रज के संरक्षक मात्र हैं। हमारा आत्मा शुक्राणु के रेत से आता है। गुठली में सुरक्षित बीज भी इसी सिद्धान्त पर बना है।
अन्न में पृथ्वी-अन्तरिक्ष-दिव्य तीनों लोकों के धातु प्रतिष्ठित रहते हैं। इन्हीं से क्रमश: सप्त धातु, फिर ओज मन बनता हैं। भुक्त अन्न से इन तीनों (शुक्र, ओज, मन) का सम्बन्ध चन्द्रमा के तीन मनोता-रेत, यश, श्रद्धा से होता है। रेत से शुक्र की प्रतिष्ठा, यश भाव से ओज की प्रतिष्ठा तथा श्रद्धाभाव मन का आलम्बन बनता है।
चान्द्र रस ही वृष्टि रूप में आया, अन्न रूप में परिणत हुआ, भुक्त अन्न से शुक्र बना। यानी चान्द्र रस ही शुक्र में आकर प्रतिष्ठित होता है। इसी को महानात्मा कहा है। मरणोपरान्त यही प्रेतात्मा नाम से, उसी मार्ग से चन्द्रमा पर पहुंचता है। इसी के लिए 13 मास तक पिण्डोदक क्रिया की जाती है।
अक्षत सोम है। शुक्र में आने वाले इस चान्द्ररस में रसात्मक सूक्ष्मभूत तथा प्राणात्मक सुसूक्ष्म देवता की प्रतिष्ठा रहती है। रसभूत युक्त यह चान्द्र प्राण ही सह: है। यह ही पितर है। चान्द्र संवत्सर तेरह माह का होता है। अत: शुक्र को भी १३ मासिक पिण्डात्मक कहा है। जैसे-जैसे नए मासिक पिण्ड बनते जाते हैं, वैसे-वैसे पुराने मासिक पिण्ड इन्द्रिय व्यापार से खर्च भी होते जाते हैं।
शुक्र व्यय के तीन प्रमुख मार्ग हैं, गौण रूप में पांच द्वार हैं। पंचेन्द्रियों का व्यय गौण भाव हैं (प्राण, वाक्, श्रोत्र, चक्षु, मन)। प्रत्येक इन्द्रिय क्रिया के लिए सर्वेन्द्रिय मन साथ होना चाहिए। शुक्र ही ओज के द्वारा मानस भाव में परिणत होता है। यही पांचों इन्द्रियों से खर्च होता है। इनके अलावा प्रजा-उत्पत्ति में शुक्र व्यय प्रथम रूप है। अत: गृहस्थ अधोरेता कहे गए हैं।
ब्रह्मचर्य आश्रम में संयम पूर्ण जीवन के कारण इनका शुक्र शरीर की पुष्टि करता है। ये त्रिर्यक स्रोत हैं। जो विद्वान, महर्षि आदि तत्त्वान्वेषण में लगे रहते हैं, इनका शुक्र ओज-मन रूप होता हुआ शिरोभाग की ज्ञानाग्नि में आहूत होता रहता है। चिन्तन के अनुपात में शुक्रक्षय होता रहता है। इनसे शरीरिक श्रम नहीं होता। ये ऊध्र्वरेता कहलाते हैं।
एक ओर यह व्यय क्रम रहता है शुक्र का, वहीं दूसरी ओर चन्द्रनाड़ी द्वारा आदान प्रक्रिया भी बनी रहती है। इस आदान-विसर्ग प्रक्रिया के कारण ही पुरुष जीवन धारण में समर्थ होता है। व्यय क्रम में भी एक सिद्धान्त है कि कोई भी प्रजापति सम्पूर्ण रूप से आहूत नहीं होते, अंश रूप में होते हैं। इसको स्खलन कहा जाता है। पुरुष सृष्टि में भी ‘त्रिपादूध्र्व: उदैत्पुरुष: पादोस्येहाभवत्पुन:’ (यजु संहिता) यही नियम है।
तीन भागों की आहुति, एक भाग की आहुति प्रदाता में प्रतिष्ठा। शुक्र के साथ पितृ सह भी आहूत होगा। एक सह पिण्ड (२८ कलात्मक) के तीन भाग तो शोणिताग्नि में आहूत होंगे तथा एक भाग पिता में प्रतिष्ठित रहेगा। आहूत भाग ”सुतो भवति”- सुत कहलाता है। पिता में प्रतिष्ठित भाग की ही पितर संज्ञा है। ये सात धन भाग है, आहूत २१ भाग ‘असुत’-ऋण भाग हैं। इन्हीं 21 सह का ऋण लेकर पुत्र उत्पन्न होता है।
पुरुष को आत्मा और शरीर दो भागों में देखा जाता है। आत्मा शुक्रमय महानात्मा है जो औपपातिक आत्मा का आश्रय है। स्थूल शरीर इस आत्मा का आयतन (निवास) है। इस शरीर का रक्षक असु (प्राण) है। प्राणाग्नि से शरीर की सत्ता है। प्राणाग्नि के स्वरूप की रक्षा रक्त करता है। हृदय द्वारा होने वाला रक्त संचार ही प्राणाग्नि को सुरक्षित रखता है। रक्त की रक्षा चेतना-आत्मा पर निर्भर है। इन चारों का कार्य-उपकारक सम्बन्ध बना रहता है।
इनमें शरीर और रक्त तो स्थूल हैं। अस्तिमत् हैं। प्राण और महान प्राण प्रधान हैं। सूक्ष्म है-सूक्ष्म जगत ही स्थूल की प्रतिष्ठा बन रहा है। प्राणात्मक महानात्मा ही रुधिरात्मक शरीर की प्रतिष्ठा है। यही सापिण्ड्य भाव का प्रवर्तक है, शरीर की प्रतिष्ठा बनता है।
अशरीरं शरीरेषु, अनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्त्वां धीरो न शोचति। (कठो. उप. 1.2.22)
– शरीरों में अशरीरी, अस्थिर पदार्थों में स्थित तत्त्व, महिमामय विभुव्यापी आत्मा का साक्षात्कार करके ज्ञानी एवं धीर पुरुष शोक नहीं करता।
माता, पिता के ऋत भाग को अपने भीतर लेकर गर्भ का आविर्भाव करती है। पिता का संकल्प है-प्रजोत्पादनमहं करिष्ये। माता इस कर्म में अद्र्धांगिनी बनती है। मिथुन भाव मानस संयोग है। ‘धीत्यग्र मनसा सं हि जिग्मेÓ। मानस संगम के अनन्तर ही दोनों के शरीर का संगम होता है। शोणित अग्नि प्रधान होने से सौम्य शुक्र को आकर्षित करता है। इस आकर्षण से पितृ शरीर में विद्युत संचार होता है।
शुक्र में क्षोभ उत्पन्न होता है। पिता के शरीर से च्युत हो जाता है। शुक्र में आप: भाग प्रत्यक्ष है, एवया मारुत रेतोधा वायु अनुमेय (केवल अनुमान से जाना जाता है) है। 28 सौम्य प्राणयुक्त सोमभाग प्रत्यक्ष है। (आप:, वायु, सोम)। इसी कारण शुक्र को ऋत कहा है।
शुक्र ग्रहण काल में स्त्री कम्पित हो जाती है। यही गर्भरस का काल है। सन्तान गर्भिभूत हो जाती है। इसका पोषण मातृभुक्त (माता द्वारा खाए हुए) अन्न से होता है।
क्रमश:
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