एकोऽहं बहुस्याम् की कामना वाला यह पुरुष स्वभाव के बाहर एक क्षण भी नहीं रह सकता-प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि। पुरुष ही जगत् में अव्यय कहा जाता है। इसकी अक्षर और क्षर भेद से दो प्रकृतियां मानी जाती है-द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षराक्षर एव च। क्षर प्रकृति आत्मक्षर व विकारक्षर भेद से दो प्रकार की है।
इनमें अक्षर व आत्मक्षर पुरुष की अंतरंग प्रकृति तथा विकारक्षर बहिरंग प्रकृति है। अंतरंग प्रकृति ही मूलत: पुरुष का स्वभाव है, इसी आधार पर पुरुष सृष्टि में व्याप्त होता है। यही पुरुष का स्वधर्म है। विद्या और कर्म दोनों का समत्व होने से पुरुष पर त्रिगुण का प्रभाव नहीं आता। गुणमय विश्व में रहता हुआ भी वह निर्गुण ही कहलाता है। जिस प्रकार विद्या अव्यय पुरुष का स्वधर्म है, उसी प्रकार अविद्या भी उसका अपना धर्म है। अत: कर्म का परित्याग संभव नहीं है–अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन!
शरीर ही ब्रह्माण्ड Podcast: प्रकृति ही योनियों का आधार
प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव प्रकृति के अधीन है जो तीन प्रकार का होता है–सत्त्व-रजस्-तमस् प्रधान। तीनों ही गुण मूल में मन-प्राण-वाक् रूप अविनाभूत ही हैं। केवल अल्पता-प्रधानता का भेद रहता है। चूंकि प्रत्येक कर्ता ही त्रिगुणी रहता है, अत: उसके कर्म भी इसी तरह तीन प्रकार के हो जाते हैं, चौथा स्तर तो प्रकृति के पार है। ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ इसी स्तर की ओर इंगित करता है। तब प्रकृति की भूमिका क्या है?
त्रिगुण का प्रभाव चूंकि प्रत्येक जीव के कर्म में दिखाई पड़ता है, अत: कहा जाता है कि प्रकृति ही जीवन को चलाती है। वास्तव में तो सृष्टि ब्रह्म और माया ही रचते हैं। प्रकृति अपने रंगों से सृष्टि को रंगीन बना देती है। प्रकृति अमृत सृष्टि को प्रभावित नहीं करती।
मह:लोक में अव्यय पुरुष बीजारोपण करता है। उसके बाद ही प्रकृति का प्रतिबिम्ब जीव पर पड़ता है। चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब से ही जीव में प्रकृति प्रवेश करती है। सूर्य तथा पृथ्वी से भी क्रमश: अहंकृति और आकृति प्रतिबिम्बित होती हैं। ये तीनों भी एक साथ रहती हैं। एक के बदलने पर तीनों का स्वरूप बदल जाता है। यही त्रिगुणात्मक स्वभाव जीव का स्वरूप कहलाता है।
प्रकृति का प्रभाव मन पर पडऩे से सभी विषयों के बारे में निर्णय बदल जाता है। आसक्ति, सुख-दु:ख के प्रभाव त्रिगुणात्मक ही हैं। जहा कुछ नहीं है, वहां ये गुण कुछ न कुछ दिखाते रहते हैं। जैसे दीपक के आगे जिस रंग का कांच/कागज रख देंगे, तो प्रकाश भी उसी रंग का होकर दिखाई पड़ेगा। तीनों गुण भी अलग-अलग रंग के कांच हैं, जो आत्मा को घेरे रहते हैं तथा मिथ्या दृष्टि पैदा करते हैं। अर्जुन के विषाद का जितना विवरण प्रथम अध्याय में किया है, वह सारा प्रकृतिजन्य था।
प्रकृति की भूमिका जीवन को जटिल बना देती है। चौरासी लाख योनियों के निर्माण में इस प्रकृति की मूल भूमिका है। प्रकृति ही फलेच्छा के साथ कर्म करने को प्रेरित करती है। फल प्राप्ति ही पुनर्जन्म और भोग योनियों के निर्माण का मुख्य सूत्र है। यही ब्रह्म का विवर्त है। कृष्ण कह रहे हैं कि प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है। इन गुणों का संग ही जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है-
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। (गीता 13.21)
पं. मधुसूदन ओझा ने अपने ग्रन्थों में इन तीन गुणों को क्रियारूप माना है। सत्त्वगुण में क्रिया अत्यल्प रहने के कारण आत्मा का स्वरूप बहुत कुछ भासित हो जाता है। इसीलिए उसको ज्ञानजनक और सुखजनक कहा। रजोगुण में क्रिया अधिक बढ़ जाने के कारण आत्मा का स्वरूप तिरोहित हो जाता है और तमोगुण में तो आत्मा के स्वरूप का पता ही नहीं लगता। संसार की आसक्ति अत्यन्त बढ़ जाती है।
ये तीनों गुण प्रकृति के स्वभाव रूप होते हुए सदा एक दूसरे के आश्रित रहते हैं। प्रश्न उठता है कि जब तीनों का स्वरूप पृथक-पृथक है और तीनों के कार्य भी पृथक-पृथक हैं तब उनको परस्पर सम्बद्ध और अन्योन्याश्रित मानने की क्या आवश्यकता? अविगीता में कहा गया है कि जैसे प्रकाश और दाहकत्व दोनों अग्नि के गुण हैं।
ये दोनों कार्य पृथक-पृथक हैं, फिर भी अग्नि के ही आश्रित होकर साथ-साथ रहते हैं। एक दूसरे के आश्रित होते हैं। बिना उष्णता के अग्नि का प्रकाश नहीं फैल सकता और बिना प्रकाश के उष्णता की उपलब्धि नहीं हो सकती। इसी प्रकार प्रकृति के तीनों गुण भी अन्योन्याश्रित होकर ही कार्य करते हैं।
मनुष्य में सर्वदा तीनों ही गुण विद्यमान रहते हैं, परन्तु उसकी विभिन्न अवस्थाओं में कभी एक गुण बढ़कर दूसरे गुणों को दबा देता है और कभी दूसरा गुण प्रथम और अंतिम को दबाकर स्वत: प्रधान बन बैठता है तथा कभी अन्तिम गुण पहले के दोनों गुणों को दबाकर अपना प्रभुत्व जमा लेता है। रज और तम ही इन्द्रियों के ज्ञान में बाधा डालने वाले हैं। जब सत्त्व गुण के प्रभाव से रज और तम दब जाते हैं तब इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों का अनायास ज्ञान होता रहता है। उनमें शुद्धता और निर्मलता का अनुभव होता रहता है।
जीवन में निरन्तर सात्विक भावना बनाए रखने का अभ्यास हो तभी अन्तिम समय में भी सात्विक भावना बनी रह सकती है। अन्त समय में मन के भाव के अनुरूप ही अगले जन्म में योनि प्राप्त होती है।
क्रमश:
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