कृष्ण स्वयं को अव्यय पुरुष कहते हैं। अव्यय की पांच कलाएं होती हैं-आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण-वाक्। इनमें शक्ति से आवरित होने पर सर्वप्रथम मन का प्रादुर्भाव माना गया है। मन अतिसूक्ष्म है, सृष्टि का आदि कारण माना जाता है। अव्यय के इस मन को श्वोवसीयस मन कहते हैं। हमारा मन तो क्षर पुरुष का स्थूल मन होता है। मन में ही कामना पैदा होती है। कामना मन का बीज है। मन में रस-बल दोनों रहते हैं। रस आनन्द है, बल क्रियाशक्ति है। मन की भावना-वासना रूप ऊध्र्व और अध: गति होती है। कामना ही माया है। ब्रह्म के मन की कामना। इसको ब्रह्म से भिन्न कैसे मान सकते हैं। मन-प्राण-वाक् तीनों कलाएं ही आत्मा कहलाती हैं एवं सदा साथ रहती है।
ब्रह्म के समान मन भी ज्ञान होता है। प्राण से अक्षर पुरुष का विकास होता है, जो क्रियाप्रधान-गतिमान रूप है। वाक् से क्षर पुरुष का विकास होता है, जो अर्थ प्रधान है। ब्रह्म से छिटका, अंश रूप जीव पुन: ब्रह्म में मिलकर ब्रह्म बनना चाहता है। बाहर से तत्त्वों को भीतर लानेे का प्रयास करता है। ये तत्त्व इस भूख (अशनाया) का अन्न बनते हैं। बल को मृत्यु एवं रस को अमृत कहते हैं। भूख मृत्यु है, अन्न प्राप्ति अमृत हैं। इस प्रकार आदान-प्रदान या आकर्षण-विकर्षण प्रक्रिया चल पड़ती है। अनन्त बलों का संघर्ष सा पैदा हो जाता है। इसी से मूल अव्यय क्रिया प्रधान अक्षर पुरुष बन जाता है।
अक्षर पुरुष की भी पांच कलाएं होती हैं-ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि और सोम। ये ही ईश्वर रूप पंच देव माने गए हैं। इन कलाओं में अग्नि और सोम तो मूल में अव्यय पुरुष की प्राण और वाक् ही हैं। अव्यय पुरुष ही अक्षर रूप में परा प्रकृति कहलाता है। इन्द्र सहित तीनों महेश्वर कहलाते हैं, जो कि त्रिनेत्र कहे गए हैं। इन्द्र की प्रतिष्ठा सूर्यमण्डल है, सोम की प्रतिष्ठा चन्द्रमण्डल तथा अग्नि की व्याप्ति पृथ्वीमण्डल है। यही परा प्रकृति का कार्यक्षेत्र है।
सूर्य का ऊपरी भाग प्रकाश-अमृत है, नीचे का आधा भाग मृत्यु है। अक्षर पुरुष ही आधा अमृत (शुद्ध अमृत) और आधा मृत्यु (क्षर) बनता है। भूत रूप में क्षर-अपरा प्रकृति ही संसार है। अव्यय ही अक्षर बनता हुआ क्षर पुुरुष कहलाता है। क्षर पुरुष की पांच कलाओं-प्राण, आप्, वाक्, अन्न व अन्नाद का विकास ही आधिदेविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक रूप में होता है। अक्षर अधिदेव है। स्वयंभू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी पांच अधिभूत हैं तथा इनसे उत्पन्न प्राणियों की भी पांच कलाएं होती हैं-बीजचिति (कारण शरीर), देवचिति (सूक्ष्म शरीर) भूतचिति (स्थूल शरीर), प्रजा (सन्तति) और वित्त (सम्पत्ति) इनका आधार भी क्षर पुरुष की पांचों कलाएं ही हैं। किन्तु अक्षर से क्षर में परिवर्तन-विकास करने के लिए एक और आवश्यक उपादान या उत्पादक तत्त्व को वैदिक भाषा में शुक्र कहा जाता है। अव्यय, अक्षर और क्षर अर्थात् पुरुष और प्रकृति मिलकर शुक्र को उत्पन्न करते हैं। ये तीनों एक ही मूल तत्त्व के रूप हैं।
”तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मतदेवामृतमुच्यते।’
जब तीनों एक ही के रूप हैं, तब दो कहां है? पुरुष-प्रकृति दो नहीं हैं। पुरुष मिट्टी है, प्रकृति मिट्टी के बर्तन हैं-फूटते हैं, नए बनते रहते हैं। मूल में मिट्टी ही है। ब्रह्म के स्तर पर माया है। माया के लिए कृष्ण कह रहे हैं कि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं वे इस माया को तर जाते हैं-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (गीता 7.14)
मूलत: आत्मा स्थिर है, वहां माया नहीं रहती। मन की चंचलता से ही मैं-मेरा इस प्रकार का बोध होता है। आत्मा का स्थिर भाव ही माया का दैवी भाव है, यही कूटस्थ ब्रह्म है। मन के कूटस्थ पर केन्द्रित होने पर वह माया से मोहित नहीं होता। साधक को दैवीगुण प्राप्त होता है। आत्मभाव से दूर रहकर माया से बच नहीं सकते। अत: मन के चंचल रहते आत्मा के स्वरूप को समझा नहीं जा सकता। चंचलता आत्मा के जिस स्थिर प्राण पर आश्रित है, उसी चिर स्थिर भाव को आवरित करता है। मन-प्राण को स्थिर कर देने पर मन स्थिर प्राण में लीन हो जाता है। आवरण या विक्षेप ही अविद्या-प्रकृति है। यही मन-प्राण की चंचलता है। समर्पण-शरणागति भाव ही माया का अतिक्रमण कर सकता है। शरणागत होना ही पौरुष-प्रयत्न कहलाता है। इसी से प्रारब्ध क्षय होता है।
पुरुष ही एकमात्र आत्मा है। चंचल प्राण ही महामाया है। वही जीव को मोहित करती है। जब कृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि मेरी परा-अपरा प्रकृति से सारे भूत उत्पन्न होते हैं। मैं ही जगत के जन्म-मृत्यु (प्रभव-प्रलय) का कारण हूं। सम्पूर्ण भूतों का बीज मैं हूं। मेरे अतिरिक्त क्या शेष रहा? पुरुष-प्रकृति दो कहां हैं? यह भारत का दाम्पत्य भाव है। इसमें स्त्री-पुरुष दो नहीं हैं। स्त्री के प्राण भी पति में ही प्रतिष्ठित रहते हैं। प्रेम का अर्थ भी है-एक हो जाना। ‘प्रेम गली अति सांकड़ी, ता में दो न समाय।’ भक्ति में भी भक्त नहीं रहता, भगवान ही रह जाते हैं। ‘जो नहीं रहता’, वह ईश्वर-ब्रह्म कैसे हो सकता है?
विवाह एक यज्ञ है। एक-दूसरे से मिलकर एक हो जाते हैं। अग्नि में सोम आहूत होता है। स्त्री सौम्या है, अग्नि-पुरुष में आहूत होने आती है। ऋग्वेद का एक मंत्र है-
अग्निर्जागार तमृच: कामयन्ते अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:।।(ऋक्संहिता 5/55/15)
यह मंत्र अग्नि-सोम के एकात्म भाव का दिग्दर्शन कराता है। दाम्पत्य भाव भी प्रकृति के इसी सिद्धान्त की अनुपालना है। सोम हमेशा अग्नि के पास आता है। अग्नि अपने स्थान पर प्रतिष्ठित रहता है। सोम अग्नि को सखा भाव से सम्बोधित करता है कि तुम प्रधान रहोगे, मैं गौण ही रहूंगा। सोम भी पुरुष भाव है। इसमें जो आश्चर्य शब्द है-सखा। सम्पूर्ण आकाश के समान व्यापक-खुला हुआ। पूर्ण नि:स्वार्थ भाव। अग्नि को अपनी स्वरूप रक्षा के लिए सोम की आवश्यकता है। सोम के ऋत भाव को सत्य भाव की आवश्यकता है। दोनों की मित्रता ही ब्रह्म के ‘बहुस्याम्’ को यज्ञ रूप में प्रतिफलित करेगी।
न अग्नि सोम के अभाव में पूर्ण है, न सोम अग्नि के बिना पूर्ण है। यही सम्वत्सर है- निर्माण का आधार है। युगल तत्त्व की अवधारणा है। पत्नी ही पति को पुरुष भाव में प्रतिष्ठित कर सकती है। अत: पहले स्त्री की पत्नी रूप में प्रतिष्ठा आवश्यक है। सभी परिजनों के सम्बन्ध उसके आयुध बनते हैं। यही दिव्यता उसकी उपलब्धियों में सहायक बनती है। वही पति को प्रवृत्त करती है, उसका निर्माण करती है और उसी में समा जाती है। पति को निवृत्ति मार्ग पर चढ़ा जाती है। समाहित होने पति के स्थूल आवरण छंट जाते हैं। भीतर बैठकर सूक्ष्म की ओर आकर्षित करती रहती है। प्राण में प्राण, मन में मन उनके एकत्व एवं अखण्ड अस्तित्व का ही प्रतिबिम्ब है।
क्रमश: