मनुष्य योनि का शरीर दो मुख्य धाराओं में बनता है-नर-नारी (पुरुष-प्रकृति)। सृष्टि में इनको ही योषा-वृषा कहते हैं। व्यवहार में माता-पिता हैं। ये दोनों भी एक समान नहीं है- पूरक होते हैं। यानी कि दोनों में भिन्न-भिन्न गुण होते हैं। हमारा पहला जन्म मह: लोक में होता है।
”मम योर्निमहद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।’ (गीता 14.3)
ऋताग्नि में ऋत सोम की आहुति (अंगिरा में भृगु की आहुति) से, श्रद्धा से, सोम (आप:-वायु-सोम) पैदा होता है। सोम की सूर्याग्नि में आहुति से पर्जन्य (बादल) पैदा होता है। यहां माता-पिता भी तत्त्व रूप हैं। पर्जन्य में जल है- सौम्य है। विद्युत के संघर्ष से जल बरसता है। पृथ्वी की अग्नि (माता) में जल रूप रेत। तब मेरा जन्म औषध-वनस्पति-जीव रूप होता है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: स्वधर्म ही श्रेयस्कर
ये मेरे अगले जन्म का पुरुष-रेत बनते हैं- अन्न रूप। माता का रूप होता है- जठराग्नि, जिसमें अन्न आहूत होता है। अन्न मेरा प्रथम स्थूल रूप बनता है। पिता स्थानीय होकर अग्नि में आहूत होता है। अन्न से शरीर के धातु बनते हैं, जहां अन्तिम धातु रेत (वीर्य) बनता है। इसमें मेरे पिता का रूप है।पिता बीज है-ब्रह्म का बीज रूप है। ब्रह्म आत्म-रूप है- अदृश्य है- प्राण है। इसी रूप में पिता से पुत्र के शरीर में प्रवाहित होता है। मेरा आत्मा तो अक्षर (सूक्ष्म) शरीर का अंग है, जबकि शरीर स्थूल शरीर है। शरीर माता की देन है। बीज को पेड़ का रूप धरती देती है। बीज और धरती का पुराना कोई सम्बन्ध हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता।
पृथ्वी का स्वयं का निर्माण पंच महाभूतों से होता है। अत: पेड़ हो या शरीर ये भी इन्हीं पंच महाभूतों से बनते हैं। शरीर का उपयोग पुरुष (आत्मा) को अपनी उम्र तक आश्रय देना मात्र है। आयु समाप्त होते ही शरीर समाप्त हो जाता है। माता की भूमिका का एक बड़ा अंश पूरा हो जाता है। पिता का रूप आत्मा का है। बीज का नया रूप नए फल में, सन्तान मे प्रकट हो जाता है। वह कभी समाप्त नहीं होता।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार
पिता का अंश आगे सात पीढिय़ों तक चलता रहता है। यह निरन्तरता आगे भी तब तक चलती है, जब तक पुत्र रूप सन्तान होती है। पुत्री में बीज संस्थान नहीं रहता। अत: पुत्री/पत्नी के प्राण पिता/पति के आश्रय में ही स्थायी भाव पाते हैं। भारतीय संस्कार परम्परा में मंत्रों के द्वारा पुत्री के प्राणांश पिता के शरीर से पति के शरीर में स्थानान्तरित किए जाते हैं। इसी को कन्यादान के नाम से जानते है।माता का शरीर पृथ्वी रूप है। पेड़ के रूप का मूल निर्माण बीज के अनुरूप करती है। बीज में फल (शरीर-सन्तान) की अहंकृति-प्रकृति-आकृति रहती है। वर्ण रहता है। अत: प्रत्येक पुरुष का अपना वर्ण भी होता है, जो उसकी कर्म दिशा-कौशल का कारण बनता है। पुरुष स्वयं अग्नि रूप है- सौम्या स्त्री की आहुति से भारतीय दाम्पत्य की पूरकता की अवधारणा स्पष्ट है। दोनों में समानता विघटन का मार्ग है। प्रकृति को चुनौती देना ही माना जाएगा।
स्त्री शरीर का निर्माण करती है। उसे पकाती है। पके हुए घड़े को फिर कोई नहीं बदल सकता। घड़े की मिट्टी में कुछ दोष भी हो सकते हैं। घड़े का स्वरूप, परिवार में उसकी आवश्यकता के अनुरूप ढालना है। यह सारा संस्कार का क्षेत्र है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: आत्मा बिम्ब, शरीर प्रतिबिम्ब, प्राण सेतु
अभिमन्यु बनाने का महती कार्य माता ही कर सकती है। चूंकि माता को ही जानकारी रहती है कि किस प्रकार का जीव परिवार में आ रहा है, वह उसी के अनुरूप जीव का पाठ्यक्रम तय करती है। कहानियां सुनाती है, लोरियां सुनाती है, अपने सपनों की बातें करती है, पूर्वजों की गाथाएं- संगीत-अध्यात्म के रूप जैसी कई विधाओं का सहारा लेती है।
ये सारा कार्य वही माता कर सकती है जो स्वयं पति रूप अग्नि में आहूत हो चुकी। जो अपनी स्वतंत्र छवि के लिए संघर्षरत होगी- उसकी सन्तान दिग्भ्रमित ही रहेगी। इसी प्रकार जिस स्त्री के प्राण पिता के पास ही छूट गए, वह भी आहूत नहीं हो पाएगी। उसका एक पैर पीहर में जमा रहेगा। उसके प्राण उसे आकर्षित करते रहेंगे। सन्तान पर तो प्रभाव माता का अधिक रहता है।
कुल मिलाकर माता देह का कारण बनती है। देह में मन-बुद्धि-आत्मा रहते हैं। मन, बुद्धि सहायक बनते हैं-शरीर के। अदृश्य रूप में। आत्मा कर्मफल भोगने और नए कर्म करने के लिए शरीर में आता है। आत्मा कारण शरीर रूप में रहता है, शरीर स्थूल शरीर है। आत्मा-पिता है, शरीर माता है। दोनों के मध्य प्राण रूप सूक्ष्म शरीर सेतु रूप कार्य करता है। आत्मा भी प्राण रूप में है, अत: दोनों मिलकर सूक्ष्म शरीर कहे जाते हैं। शरीर छूट जाने पर भी दोनों साथ-साथ विदा होते हैं- नया घर ढूंढने के लिए।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: प्राणों का आदान-प्रदान
पिता के बीज में जो सात पीढिय़ों के अंश आते हैं, उनके साथ उनके स्वभाव (आकृति-प्रकृति-अहंकृति) के अंश भी आते हैं। ये पुत्र के स्वभाव में भी समय-समय पर प्रकट होते हैं। इनमें कुछ वंशानुगत रोग भी रहते हैं, पुण्यायी भी रहती है। जैसे अनेक सन्तानों को पिता के ऋण भी चुकाने पड़ते हैं, वैसे ही सातों पीढिय़ों के अंशों का प्रभाव भी समझना चाहिए।पिता से प्राप्त सभी अंश पुत्र में आगे प्रवाहित होते हैं। वे ही नस्ल-खानदान के रूप में जाने जाते हैं। मां से पंचमहाभूतों का शरीर प्राप्त होता है, चन्द्रमा से हमारा मन बनता है। धरती के बदल जाने पर बीज का स्वरूप भी श्रेष्ठ या निकृष्ट हो जाता है। सूर्य से बुद्धि प्राप्त होती है। व्यक्ति स्वयं आत्मरूप होता है। सूर्य हमारा आत्मा है अत: बुद्धि भी आत्मा के पास रहती है। स्त्री सौम्या है- मन प्रधान है, चन्द्रमा से मन का पोषण होता है। चन्द्रमा को सूर्य पत्नी कहा जाता है। चन्द्रमा से ही स्त्री-पुरुष शरीर में प्रजनन तंत्र नियंत्रित होता है।
शुक्र में सात पीढ़ियों के अंश-सप्त पितृांश
बीज से पेड़ बनता है। पेड़ की सार्थकता फल आने और उसमें नए बीज पैदा करने की क्षमता पैदा होने तक है। बीज पिता के प्राण के साथ पेड़ में/शरीर में बहते हैं। संपूर्ण शरीर में आत्मा के रूप में व्याप्त रहते हैं। अरणी-मन्थन में प्रत्येक अंग से ये कण निकलकर बीज रूप तैयार होते हैं-आहूत हो जाते हैं। साधारण स्थिति में इन्हीं कणों से व्यक्ति के चेहरे पर ओज बढ़ता जाता है।
आगे ओज से मन बनता है। मन निर्माण की अन्तिम कड़ी बनता है। मन में इच्छाएं प्रकट होती है- बुद्धि कर्म करने का निर्णय लेती है। शरीर कर्म करने को प्रेरित हो उठता है। मन में भक्तियोग के झरने बहते हैं। कर्मयोग-ज्ञानयोग दो किनारों के बीच माता-पिता के प्राण जीवन को चलाते हैं-बढ़ाते हैं। भक्ति ही मुक्ति का सोपान है।
क्रमश: