मैं अग्नि हूं। शरीर मेरा अग्नि है। शरीर से अग्नि निरन्तर निकल रही है। इसको गति कहते हैं। इसकी पूर्ति के लिए मुझे वायुमंडल से जल, अग्नि, वायु सभी वापस मिल रहे हैं। यही गति और आगति का सिद्धान्त कहलाता है। इसी से मेरी क्षतिपूर्ति हो रही है।
जीवन में विज्ञान के जितने सिद्धान्त हम देख पाते हैं वे सब अन्न के साथ जुड़े हुए मिलेंगे। हर प्राणी का अन्न निश्चित है। पहले यह पता होना चाहिए कि मेरी प्रकृति क्या है? सत्व, रज अथवा तम। वर्ण कौनसा है? वर्ण व प्रकृति के अनुसार अन्न भी प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न होता है।
वस्तुत: वर्ण ईश्वरीय व्यवस्था का अभिन्न अंग है। जिसको वर्तमान समाज व्यवस्था में जाति कहा जाने लगा है। वर्ण तो हमारे आत्मा से जुड़ा रहता है, प्रकृति की तरह। इस स्वरूप का अगर पता है, तो यह भी पता है कि मेरा अन्न क्या है। जो मेरे स्वधर्म के विपरीत ले जाएगा, वह अन्न ग्रहण नहीं होगा।
अन्न को हम सामान्यत: खाने योग्य पदार्थ के रूप में जानते हैं। वस्तुत: अन्न की परिभाषा बहुत व्यापक है। हम सृष्टि के अभिन्न अंग हैं। अत: सृष्टि की हर रचना के साथ जुड़े हुए हैं। हम सब एक-दूसरे का अन्न भी हैं। अन्न के प्रसंग में श्रुति है ‘सर्वमिदमन्नाद: सर्वमिदमन्नम्’।
अन्नाद का अर्थ है ग्रहण करने वाला, खाने वाला। इसका अर्थ है कि सब कुछ अन्न हैं और सभी कुछ अन्नाद हैं। जिसका जिससे निर्वाह होता है वही उसका अन्न है, जैसे आकाश का अन्न शब्द है। यहां तक कि संवाद भी अन्न है। हम एक-दूसरे से बात कर रहे हैं, तो हम एक-दूसरे का भोग कर रहे हैं।
यानी हम एक-दूसरे के अन्न हैं। विचारों से, भावनाओं से, कर्मों से जो भी ग्रहण किया जाता है, वह सबकुछ अन्न हैं। हम एक-दूसरे को भोग रहे हैं। क्या अन्न की इस व्यापकता को हम समझ पाते हैं?
गीता का विज्ञान तो यहां तक कहता है कि अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं। आज का विज्ञान कैसे मान पाएगा?
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।। (गीता 3.14)
इस श्लोक में सृष्टि का गहरा विज्ञान निहित है। यह जीव के पृथ्वी पर अवतरण का श्लोक है। अन्नाद्भवन्ति भूतानि यानी अन्न से भूत (प्राणी) उत्पन्न होते हैं। जैसे मेरे अध्यात्म के चार अंग-शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा हैं। उसी तरह अन्न के भी चार अंग होने चाहिए। तभी वह मेरे शरीर को, मेरे अध्यात्म को या मेरे अधिभूत को पुष्ट करता है, अन्यथा नहीं कर पाएगा।
उस अन्न को पुष्ट करने वाले जो तत्व हैं, प्रकृति में, उनके भी चार ही रूप होने चाहिए। गेहूं के खेत में किसान से पूछें कि गेहूं का यह दाना पका है या नहीं? तो, उसका उत्तर होगा कि इसमें जीव पड़ गया, अब हम इसको काट सकते हैं, खा सकते हैं।
कितने लोगों को समझ में आता होगा कि अन्न के हर दाने से एक जीव हमारे शरीर में जा रहा है। ब्रह्माण्ड में भी सात महासागर हैं। ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ का नियम सर्वत्र लागू होता है। सम्वत्सर में पृथ्वी भ्रमण करते हुए चार महासागरों से गुजरती है-दधि सागर, घृत सागर, मधु सागर और अमृत सागर। उन चारों महासागरों का प्रभाव हमारे अन्न पर पड़ता है।
दधि, घृत, मधु और अमृत इन चारों तत्त्वों का सम्बन्ध क्रमश: शरीर, स्नेहन, मिठास और रस से हैं। इसी तरह अन्न में भी चारों तत्त्वों मौजूद रहते हैं। गेहूं को पीसेंगे तो उसका चापड़ (छिलका) निकलता है, वह दधि भाग है। जब आंटे को गूंधते हैं तो उसमें जो स्नेहन या लोच आ रहा है, वो उसका घृत भाग है। गेहूं में जो मिठास है, वह मधु भाग है। जो रस भाग है, उसको हम अमृत कहते हैं। रसो वै स:। रस ब्रह्म का पयार्य है। यानी अन्न ही रस को हमारे शरीर में ला रहा है।
अन्न से शरीर के सात धातु बनते हैं। रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र बनते हैं। शुक्र सोम है। वृषा है। वो बीज (शुक्राणु) को संरक्षित रखने का कार्य करता है। शोणित (रज) आग्नेय है, योषा है। शुक्र (पुंभू्रण) योषा के मह:लोक में जाकर आहूत होता है।
अर्थात् ब्रह्म अन्न के माध्यम से सम्पूर्ण चौरासी लाख योनियों में व्याप्त है। शरीर में जीव प्रवेश करता है। शरीर की समाप्ति के बाद जीव वहां से निकल कर चला जाता है। उसके आगे शरीर की उपयोगिता जीव के लिए नहीं है। वह कपड़ों के जैसे शरीर बदल लेता है।
गीता भी कहती है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृöाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। (2.22)
तब, शरीर का रिश्ता, जीव के साथ क्या बना? केवल यात्रा मार्ग वाला ही हो गया। सारे लोकों को अगर हम अन्न के साथ जोड़ते चले जाएंगे तो हमारे अध्यात्म का अन्न, हमारे अधिभूत का अन्न और हमारे अधिदेव का अन्न मिलकर एक सूत्र से जुड़े दिखाई देंगे। हम अनुष्ठान करते हैं, देवताओं का मंत्रों से आह्वान करते हैं। भोग सामग्री अर्पित करते हैं कि आप यह अन्न ग्रहण कीजिए।
गीता कह रही है कि अन्न से हम देवताओं को तृप्त करें। तो वो हमको तृप्त करेंगे- देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:। अभिप्राय यह है कि सृष्टि अन्न के आदान-प्रदान पर ही आगे बढ़ती है और व्यवस्थित चलती है। अगर हम देवताओं को अन्न अर्पित नहीं करेंगे, तो उनको उपवास करना पड़ेगा। असुर ही पुष्ट होंगे।
आज अन्न की परिभाषा पूरी तरह बदल गई है। जिस तरह के अन्न नई पीढ़ी के सामने आ रहे हैं, उनमें तो ये सारी परिभाषाएं लुप्त ही हो गई हैं। प्रकृति के नियमों के अनुसार तो चारों वर्णों के अन्न अलग-अलग हैं। यह गीता के 17वें अध्याय में बहुत स्पष्ट रूप से कहा है।
भिन्न वर्णों के साथ शरीर भी भिन्न होते हैं। अगर ब्राह्मण का अन्न क्षत्रिय खाए और क्षत्रिय का अन्न ब्राह्मण खाए तो इसका परिणाम उनके शरीर के माध्यम से समझ सकते हैं। अत: अन्न को और गहराई से समझने की जरूरत है।
प्रश्न है कि अन्नप्राशन संस्कार क्यों करते हैं? वर्ण को समझने के लिए। वर्ण प्रकृति से प्राप्त होता हैं। ईश्वर स्वयं वर्ण का निर्माण कर रहे हैं-चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं…। शास्त्र तो यहां तक भी कहते हैं कि जिस प्रकार हमारे उत्तर और दक्षिण गोलाद्र्ध हैं, वैसे ही पूर्व और पश्चिम गोलाद्र्ध भी हैं।
पूर्व का गोलाद्र्ध इंद्र प्रधान है। आग्नेय है। पश्चिम का गोलाद्र्ध वरुण प्रधान है। वरुण का मतलब सोम, भोग्य सामग्री यानी अर्थ। और इंद्र का तात्पर्य है अग्नि, आत्मा। आत्मा की चर्चाएं पूर्व में मिलेगी, पश्चिम में नहीं। पूर्व का व्यक्ति पश्चिम के अन्न से पुष्ट नहीं हो पाएगा। व्यक्ति जिस भूगोल के अंदर पैदा होता है, वहां उत्पन्न होने वाला अन्न ही उसकी पुष्टि में सहायक होता है।
क्रमश:
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