scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: स्वधर्म ही श्रेयस्कर | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 03 Dec 2022 self religion is the best | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: स्वधर्म ही श्रेयस्कर

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: देश, काल, परिस्थिति के बीच क्या धर्म है-इस स्वधर्म (वर्ण भी) का विचार होना चाहिए। जब कृष्ण कहते हैं कि युद्ध के अतिरिक्त क्षत्रिय के कल्याण का अन्य साधन न हो। प्रजा की विपत्ति हटाने के लिए किया जाने वाला युद्ध ही धर्मसम्मत है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Dec 03, 2022 / 08:11 am

Gulab Kothari

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड:

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड:

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: स्व का अर्थ है-‘अपना’ और धर्म का अर्थ है ‘धारक’। जो तत्त्व, जो कर्म, जो ज्ञान, जो भक्ति, जो योग अपने आपको स्व-स्वरूप में धारण किए रहता है, वही उस स्व का अपना धर्म है, स्वधर्म है। किसी की दृष्टि में सत्य, दया, अहिंसा, अस्तेय आदि सामान्य धर्म ही स्वधर्म हैं। किसी की दृष्टि में वेदशास्त्रों में उपवर्णित काम्य कर्म, भक्ति, ज्ञान ही स्वधर्म हैं। अथवा कोई वर्ण धर्म को ही स्वधर्म मानता है। आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक विवर्तों में समान रूप से व्याप्त रहते हुए, तीनों तंत्रों के नियत योगों का असंग भाव से संचालन करते रहना ही ईश्वर का स्वधर्म है। अधिदेव सत्त्व प्रधान, अधिभूत रजस् प्रधान तथा अध्यात्म तमोगुण प्रधान माने गए हैं। सभी प्रकार के कर्म, ज्ञान और भक्ति भावों का साक्षी बने रहना ही ईश्वर का स्वधर्म है। जीव चूंकि ईश्वर का अंश है अत: व्यापक नहीं है। वह अपने शरीर मात्र में सीमित रहता है। अत: उसका धर्म तदनुरुप आकृति, प्रकृति तथा अहंकृति विशेष तक सीमित रहता है।
इस प्रकार सामान्य स्वरूप रक्षा के लिए जो कार्य किए जाएं वे सामान्य धर्म कहलाते हैं। अधिकार प्राप्त पुरुष (अधिकारी) का अपने कर्म क्षेत्र के अनुरूप कार्य करना भी धर्म है, वह गुणधर्म है। स्वरूप-धर्म अपरिवर्तनीय है। अन्य पदार्थ के स्वरूप पर हमारी क्रिया भी परावर्तित होकर हमारे स्वरूप में उन्नति अथवा हानि का कारण बनती है। अत: दूसरे से व्यवहार भी धर्म या अधर्म के अन्तर्गत आता है। हम निष्क्रिय रहें, तब भी अन्य क्रियाशील के संसर्ग से हम पर उसका प्रभाव आ जाता है।

देश, काल, परिस्थिति के बीच क्या धर्म है-इस स्वधर्म (वर्ण भी) का विचार होना चाहिए। जब कृष्ण कहते हैं कि युद्ध के अतिरिक्त क्षत्रिय के कल्याण का अन्य साधन न हो। प्रजा की विपत्ति हटाने के लिए किया जाने वाला युद्ध ही धर्मसम्मत है।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। (गीता 18.47)
अर्थात्-गुणशून्य भी अपना स्वभावनियत धर्म, अच्छे प्रकार से अनुष्ठित परधर्म से श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्म को करने वाला मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता।

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स्वभाव कर्म की चर्चा भी इसी अध्याय में की गई है जहां चारों वर्णों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न होने वाले गुणों के द्वारा विभक्त कर दिए जाते हैं। शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान आस्तिकता ये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में पीठ नहीं दिखाना, दान करना, ईश्वर भाव रखना, ये क्षत्रिय के स्वभावज कर्म हैं। खेती करना, गौरक्षा तथा वाणिज्य वैश्य के स्वभाव सिद्ध कर्म हैं। परिचर्या करना शूद्र का स्वभाव सिद्ध कर्म है। (गीता 18.41-44)

अत: यह तो स्पष्ट ही है कि स्वयं के धर्म को वर्ण के आधार पर तथा वर्ण को अन्न के आकर्षण के आधार पर श्रेणीबद्ध किया गया है। सही अर्थों में अन्न ही बड़ा चौराहा है, जहां सृष्टि विभिन्न मार्गों में बंटती है। एक सृष्टि-जिसमें अन्न औषधि-वनस्पति-तृणादि हैं- वह तो पृथ्वी पर जल की वर्षा (आहुति) से ही उत्पन्न हो जाती है। यह सृष्टि आगे की सृष्टि का अन्न बनती है।

मनुष्य योनि भी उसी औषधि को अन्न बनाकर जीवित भी रहती है, आगे भी बढ़ती है। प्रकृति में तीन गुण होते हैं। सत्व गुण निर्मल है, प्रकाश (ज्ञान) करने वाला, विकाररहित होता है। सुख और ज्ञान के अभिमान से बांधता है। रजोगुण कामना-आसक्ति से उत्पन्न होता है। कर्म फलों से बांधता है। तमोगुण मोह पैदा करता है। प्रमाद-आलस्य-निद्रा से बांधता है। (गीता 14/6-7-8)।

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चूंकि अन्न की भी तीन ही श्रेणियां-सत्व, रज व तम हैं, अत: मानव की भी तीन प्रकृतियां बनती हैं। इनका ही स्वरूप ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य हैं। इसीलिए कहा है ”जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन’। वैसा ही वर्ण, वैसी ही मन में उठने वाली इच्छाएं।

यही वर्ण पिता के द्वारा सन्तान में प्रवाहित होता है। गीता के १७वें अध्याय में त्रिगुणात्मक अन्न का विवरण मिलता है। वर्ण से अन्न का चयन, अन्न से मन का निर्माण, मन से इच्छा का उद्भव, इच्छा से कर्मक्षेत्र का निर्माण, वैसा ही व्यक्तित्व। उदाहरण के लिए-

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा:।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना:।। (गीता 17.4)
अर्थात्-सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं। राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा तामस पुरुष प्रेत-भूतगणों को पूजते हैं। देव-असुर कैसे होते हैं यह भेद भी इसी अध्याय में उपलब्ध है। ये सब हमारी प्रकृति के दर्पण हैं।

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हमने जाना कि सूर्य से अहंकृति, चन्द्रमा से प्रकृति तथा पृथ्वी से आकृति का निर्माण होता है। तीनों सदा समान रूप में साथ रहते हैं। एक के बदल जाने पर तीनों बदल जाते हैं। अहंकृति-आकृति को हम बदल नहीं सकते। प्रकृति को बदला जा सकता है। बिना प्रकृति को समझे प्रकृति के चुंगल से बाहर नहीं निकला जा सकता। कृष्ण का आदेश है-

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निद्र्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। (गीता 2.45)
अर्थात्-वेद तीनों गुणों के कार्य का ही वर्णन करने वाले हैं। हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से रहित हो जा। निद्र्वन्द्व हो जा। निरन्तर नित्य वस्तु में स्थित हो जा। योगक्षेम की चाह भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।

परमात्मा में लीन हो जाना ही जीव का स्वधर्म है। इस स्थिति को प्राप्त करने की चेष्टा ही स्वधर्म पालन है। इसके अभाव में जो इन्द्रियासक्त होकर पशु के समान जीवनयापन करता है, इसी को परधर्म कहते हैं। आत्मा का भी एक स्वाभाविक धर्म है, जो आत्मा में ही रहता है। शुद्ध ब्रह्म निर्गुण है, किन्तु माया से गुणधर्म होते हैं।

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सगुण ब्रह्म भी शुद्ध-स्वभाव में तथा नि:स्पृह रहता है, किन्तु कुछ न करने पर भी सब उसकी ‘अनिच्छा की इच्छा’ से होता है। यह अनिच्छा की इच्छा ही आत्मा का स्वधर्म है। यही ब्रह्म की निजशक्ति माया है। ब्रह्म जब स्वयं को विश्व रूप में प्रकट करता है तब उसका प्रथम स्पन्दन ही प्राण है। प्राणरूप ही वह सब भूतों में प्रकाशित होता है।
स्थिर प्राण ईश्वर तथा चंचल प्राण जीव होता है। ये स्थिरता/चंचलता दोनों प्राण के स्वधर्म हैं।

प्राण सदा जीव के श्वास-प्रश्वास में प्रवाहित रहता है। प्राण का बहिर्मुखी होना ही मन की चंचलता का कारण है। चंचल प्राण से मन पैदा होता है। (श्री लाहिडी)। श्वास की गति अभ्यासवश ठीक हो जाती है। इस साधना में यदि मन ठीक न बैठे तो उसे मत छोड़ो, क्योंकि अभ्यास करते-करते उसका वैगुण्य भाव मिट जाएगा। समय के साथ आसक्ति ठहर जाएगी।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (गीता 6.35)
अत: कृष्ण कह रहे हैं कि चंचलता के कारण अपना कर्म ही करणीय है। चाहे उसमें कुछ भी नहीं दिखाई दे, फिर भी स्वधर्म ही श्रेष्ठ है। दूसरे कर्मों में प्रवृत्त हो जाने पर तो अज्ञानवश उसमें अनेक प्रकार के अपराधों की संभावना रहती है। अपना कर्म करते हुए मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता।

क्रमश:

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