जिज्ञासु शोधार्थी या ज्ञान का इच्छुक है। वह स्वयं के बारे में जानना चाहता है और ईश्वर के बारे में भी। ग्रन्थ पढऩा, सत्संग करना, साधना-चिन्तन आदि करना जिज्ञासु की पहचान है। यह मूल में भक्ति मार्ग है। ज्ञानी आत्मरत है। उसकी भक्ति निष्काम होती है।
अन्तिम लक्ष्य भगवत भक्ति ही होता है। कृष्ण ने उद्धव से कहा था-तुम सबकुछ छोड़कर, स्वजन-बन्धुओं में स्नेह/मोह का त्याग करके मुझमेें सम्यक् रूप से मन समाहित करके, समद्रष्टा होकर जीओ। ऐसे लोग भगवत कृपा से ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
इन चारों भक्तों में ज्ञानी श्रेष्ठ माना गया है। ये मनस्वी होते हैं। ईश्वर के भक्त, देहाभिमान से मुक्त, नित्य-युक्त रहते हैं। इनके चित्त में विक्षेप नहीं होता। भागवत में लिखा है-
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि।।
अर्थात्-भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदय में वास करता हूं। भक्त मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता। दूसरे शब्दों में ज्ञानी का आत्मा मैं हूं। ज्ञानी भी आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानता है। आत्मा ही आत्मा के, परमात्मा के निकट है। सकाम भक्त आत्मा के इतने निकट नहीं होते क्योंकि आत्मा अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अन्तरतम है। एकनिष्ठ नहीं हो सकते।
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी कहते हैं-”मन के स्थिर होने का नाम निरोध है। निरोध अवस्था ही ब्रह्म का स्वरूप है। जो निरोध अवस्था में रहता है उसी का हित होता है। अभ्यास की दृढ़ता से ही ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। जब ज्ञान नित्य हो जाता है तब सब ब्रह्म हो जाता है। यह अवस्था ही नि:शेष रूप से हितकारी होती है।
जहां सबकुछ है भी और नहीं भी। सब एक हो जाने पर स्वयं भी नहीं रहता। न सत्य रहता है, न ही मिथ्या। उसी ब्रह्म से सारी सृष्टि होती है। सभी भूतों में वही प्राणवायु रूप सूक्ष्म भाव से रहता है। इस वायु के द्वारा ही सबके स्थूल अणुओं का नाश होता है। अत: युक्त चित्त योगी ब्रह्माणु के भीतर प्रवेश करके अणु हो जाते हैं। न देहाभिमान रहता है, न ही किसी वस्तु में चित्त लगता है।’
गीता में कृष्ण पुरुष-प्रकृति को स्वीकार करके भी सृष्टि के विषय में प्रकृति को स्वतंत्र नहीं मानते। ”मेरे अधिष्ठान के द्वारा प्रकृति जगत् को उत्पन्न करती है।’ ”प्रकृति उनकी मातृृृस्थानीया है और मैं पिता हूं।’ अत: मूल तत्त्व पुरुष या प्रकृति नहीं है। परब्रह्म ही मूल तत्त्व है। अक्षर और क्षर दोनों उस पुरुषोत्तम की परा और अपरा प्रकृति हैं।
गुणातीत अवस्था में न पुरुष का पुरुषत्व रहता है, न ही प्रकृति का प्रकृतित्व ही रहता है। न सत् है, न ही असत्। न चैतन्य तत्त्व है, न जड़ तत्त्व है। परन्तु ज्ञानी लोग कम स्वीकारते हैं। वे तो ‘साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च’-को मानते हैं। निर्गुण-सगुण मिलित भाव में रस रहता है।
उत्तम पुरुष/कृष्ण जो कूटस्थ (आत्मा) के भीतर है वही सर्वव्यापक महत है। वही अहं है। प्रकृति शरीर है। महत शरीर के भीतर है। शक्ति जड़-चेतन दोनों में रहती है। जड़ को भेदकर जब शक्ति स्फुरित होती है तब उसको चेतना कहते हैं। सुप्त शक्ति जड़ है।
जड़ में ज्ञान या कोई प्रकाश नहीं रहता। जड़त्व और पराधीनता के कारण ही प्रकृति को छोटा मानते हैं। चेतना का अंश ही प्राणरूप है, स्पन्दनधर्मा है। प्राण के स्पन्दन में ही जगत का विकास होता है। प्राण ही जगत का धारक है। ज्ञान शक्ति इच्छामयी है, प्रकृति क्रियामयी है।
चारों प्रकार से भजन करने वालों में एक तथ्य उपलब्ध है-सुकृतिन:। इसका अर्थ है कि जिनका पूर्व जन्म का पुण्यकर्म परिपक्व हो चुका है, वे ही इन चार अवस्थाओं में मेरा भजन करते हैं। अन्यथा अन्य देवताओं के भजन में लग जाएंगे। व्यापक रूप से भगवान के भजन का कारण आर्त ही है। भजन तो किसी भी कारण से किया जाए, परिणाम मन की पवित्रता ही है।
‘मां’ शब्द से सगुण और निर्गुण दोनों की उपासना का ग्रहण हो जाता है। किन्तु ज्ञानी को भी भजन करने वाला कहकर भक्ति को ज्ञान से बड़ा बताया गया है। यही भक्ति का अर्थ है कि ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी, शरीर रहने तक, इस ज्ञान को दृढ़ रखने के लिए निर्गुण का चिन्तन करते रहना चाहिए। वैसे ज्ञान और भक्ति में अंगांगी भाव है। भगवत प्रेम से तत्त्व-ज्ञान विकसित होता है और तत्त्व-ज्ञान से भगवत प्रेम बढ़ता है।
निर्गुण उपासना के लिए पांच रूप कल्पित किए हैं-विष्णु-शिव-शक्ति-गणेश-सूर्य। उपासना की प्रेरणा त्रिगुणात्मक है। उसी के अनुसार वह देवता का चयन करता है। वहां उसकी श्रद्धा को भगवान दृढ़ बना देते हैं। क्योंकि पूर्व संस्कारों से ही बुद्धि राजसी/तामसी होती है। उसे सत्व नहीं बनाते। तब सृष्टि चलेगी ही कैसे? अन्तर समाप्त हो जाएगा। संसार में कामनाओं का प्रवाह बना रहता है। ज्ञानी में कामना प्रवाह नहीं रहता।
त्रिगुण के प्रभाव में साधारण पुरुष तो सांसारिक वस्तुओं का यथार्थ भी नहीं जान पाता। आत्मतत्त्व जैसे विषय को कैसे पहचानेगा। राग-द्वेष के अनुरूप ही लोग ईश्वर को भी देखते हैं। इसी आधार पर उनके जो भिन्न-भिन्न अर्थ बनते हैं, वे ही योगमाया का प्रभाव हैं।
राग-द्वेष ही सृष्टि के कारण हैं-छूट नहीं सकते। हां, जिन मनुष्यों के पाप-कर्मों का अन्त आ गया है, वे ही दृढ़ता से ईश भजन करते हैं। ऐसे लोग ही चारों प्रकार के भक्तों में मेरी ओर मुंह कर पाते हैं। वे ही मुझे अध्यात्म, अधिदेव तथा अधिभूत के साथ जानते हैं।
परमपद को ज्ञान से ही जाना जाता है। मुझे न पहचानने का कारण योगमाया है। ईश्वर अपना स्व-स्वरूप छोड़कर मनुष्य रूप धारण करता है, यही योगमाया है। मुझे मनुष्य शरीर ने ढक लिया, तब मूढ़ कैसे मुझे पहचानेगा? इसके लिए ज्ञान-मार्ग ही लेना होता है। वैसे माया ईश्वर को ढक नहीं सकती, वह जीवों की दृष्टि को बादल के समान ढक लेती है।
कृष्ण कह रहे हैं कि मैं तो सब जीवों का भूत-भविष्य-वर्तमान जानता हूं, जीव मुझे नहीं जानते। अर्थात् माया मुझे नहीं ढक सकती। चूंकि ईश्वर सबका ज्ञाता है, वह ज्ञान का विषय ही नहीं बन सकता। तब तो जानने वाला ईश्वर से बड़ा हो जाएगा।
क्रमश:
शरीर ही ब्रह्माण्ड : ध्वनि हमारी माता
शरीर ही ब्रह्माण्ड : नारी सौम्या, स्त्री (योषा) आग्नेय है
शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीवन अमृत-मृत्यु रूप है
शरीर ही ब्रह्माण्ड : ब्रह्म : जगत प्रतिष्ठा
शरीर ही ब्रह्माण्ड : बाहर प्रवृत्ति, भीतर निवृत्ति
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