scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: आहुति मन की | Group Editor In Chief Gulab Kothari Special Article 3rd August 2024 Sharir Hi Brahmand | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: आहुति मन की

ब्रह्म का आधार तत्त्व सोम है, रेत है। माया विशुद्ध अग्नि है, जिसमें ब्रह्म समा जाता है। अत: विश्व शुद्ध माया रूप में भासित होता है। ब्रह्म का पोषण भी माया के माध्यम से ही होता है- वह तो निराकार है। स्थूल मन शरीर के साथ भटकता रहता है। ब्रह्म तक पहुंच ही नहीं पाता।

जयपुरAug 03, 2024 / 11:56 am

Gulab Kothari

सुतो भवति, सूयते अग्नौ, अभिषुतो भवति इत्यादि निर्वचनों के अनुसार अग्नि में आहूत होने वाला पदार्थ सोम है। इस सोमाहुति से, अग्नि-सोम के समन्वय से उत्पन्न अपूर्व भाव यज्ञ कहा जाता है, यही यज्ञ विश्व प्रजा को उत्पन्न करने वाला है। यह समस्त विश्व अग्नि और सोम के समन्वय से बना है, अत: विश्व के सभी चर-अचर प्राणी अर्द्धनारीश्वर ही हैं। प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति सिद्धान्त के आधार पर प्रधानभूत तत्त्व की दृष्टि से संसार के पदार्थों को आग्नेय और सौय इन दो भागों में विभक्त किया गया है।
अग्नि पुरुष है, पति है, पिता है। सोम स्त्री है, पत्नी है, माता है। अग्नि को ब्रह्म और सोम को सुब्रह्म कहा जाता है। बाहर पुरुष अग्नि है—‘‘पुरुषो वा अग्नि:’’ (शत.ब्रा. 14/9/1/15)। बाहर स्त्री सोम है, सौया है। भीतर पुरुष सोम है। भीतर स्त्री अग्नि है। स्त्री-पुरुष के जो अवयव सृष्टि के उपादान बनते हैं, उनको योषा-वृषा, रयि-प्राण, रेत-योनि आदि कहा जाता है। रेत सुब्रह्म रूपवृषा का अंश है। योनि ब्रह्म रूप योषा का अंश है। अर्थात् आग्नेय भाग योनि व सौय भाग रेत है। रेत ही सृष्टि का उपादान बनता है। सुब्रह्म की ब्रह्म में आहुति होने से अपूर्व की उत्पत्ति होती है। बीज पुरुष है—सोम है। धरती माता है, आग्नेय है। पेड़ ही मां का विकास है—सौय है। उसके भीतर अग्नि का प्रवाह है। यही अग्नि ही तो अरणी मन्थन से बाहर की ओर प्रकट होता है। भीतर इसी अग्नि में एक सौय प्राण भी प्रवाहित रहता है, जो पुुंभ्रूण है। वही फल का स्वरूप निर्मित करने वाला तत्त्व है। फल में भी पांचों महाभूत, रस-गंध आदि रहते हैं। फल में इनका समावेश बीज के कारण होता है क्योंकि बीज शुक्र है यह शुक्र जीव को आश्रय देने वाला पुरुष शरीर का सप्तम धातु (शुक्र) है।
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जीव पूर्व जन्मों के संस्कारों, कर्मफलों आदि के साथ स्थूल शरीर की ओर गति करता है। इस क्रम में पंचाग्नि सिद्धान्त के अनुसार चतुर्थ अवस्था में वह वैश्वानर अग्नि में आहूत अन्न के माध्यम से पुरुष शरीर में शुक्र रूप में परिणत होता है। पिता को ही परोक्ष रूप में जीव के कर्मफलों, ऋणानुबन्ध, वीर्य आदि के साथ संबंधित माना जाता है। फल का शरीर मां है- स्त्री है। इन्हीं दोनों के समन्वय से सृष्टि आगे बढ़ती है। परोक्षप्रिया इव हि देवा: इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति का प्रत्येक कार्य परोक्ष में होता है।
सृष्टि सृजन में भी पुरुष और स्त्री के क्रमश: सौय-शुक्र व आग्नेय-शोणित का ही संयोग होता है। आग्नेय-पुरुष शरीर की प्रतिष्ठा शुक्र तथा सौय स्त्री की प्रतिष्ठा शोणित में है अत: बाहर से आग्नेय दिखाई देने वाला पुरुष भीतर से सोम रूप होता है। बाहर से सौया दिखने वाली स्त्री भीतर आग्नेय होती है। स्त्री प्रकृति की गतिमान प्रतिकृति है। ब्रह्म को भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रदान करती है। शरीर स्त्री नहीं होता, न ही पुरुष होता है। दोनों प्राण रूप सूक्ष्म रहते हैं। अत: इनका सप्रेषण भी सूक्ष्म होना चाहिए, परोक्ष भाषा में होना चाहिए। स्त्री परोक्ष भाषा की विशेषज्ञ कही जाती है। वही सप्रेषण के माध्यम से जीवन को स्वरूप प्रदान करती है। प्रकृति में स्त्री और पुरुष की भूमिका भिन्न होती है। स्त्री निर्माण करती है, पोषण करती है और सृष्टि की मूल भूमिका में दिखाई पड़ती है। उसका पुरुष के प्रति मातृत्व भाव भी रहता है। पुरुष के साथ एक सपने को लेकर जीती है। यही उसके सप्रेषण की भूमिका और आधार बनता है। परोक्ष भाव में अपने सपने को ही जीती है। पुरुष के पास पत्नी के प्रति कोई सपना नहीं होता। न ही स्त्री के परोक्ष भाव को समझ पाता है। स्त्री बाहर कितनी भी कोमल दिखाई दे, भीतर पुरुष से अधिक कठोर होती है। उसके निर्णय आसानी से नहीं बदले जाते। जीवन के प्रति उसकी दृष्टि स्पष्ट होती है। यही उसके सप्रेषण की सफलता का रहस्य है। चूंकि, पति के प्रति पूर्ण समर्पित रहती है, अत: सप्रेषण आत्मीयता के धरातल पर पवित्रता लिए होता है।
परोक्ष भाषा ही पोषण का माध्यम बनती है। जीव का अहंकार किसी अन्य का निर्देश मान लेने को तैयार नहीं होता। चाहे बच्चा हो अथवा बड़ा। किन्तु वह परोक्ष को पकड़ नहीं पाता क्योंकि परोक्ष ही ब्रह्म है। स्त्री बालक को भी बहला लेती है और बड़ों को भी। जीवन में ब्रह्म की दो ही अभिव्यक्तियां हैं—अन्न और वाक् (नाद)। दोनों पर ही स्त्री का अधिकार पूर्ण रूपेण रहता है। इसका कारण उसकी सौय प्रकृति है। यही माधुर्य-रस-उसके भीतर समाहित रहता है। भीतर का आग्नेय स्वभाव (ईर्ष्या-द्वेष आदि) भी वह मृदुता के साथ प्रकट करने में दक्ष होती है। इसीलिए कहते हैं कि माया का समझ पाना पुरुष के वश की बात नहीं है। वैसे भी स्त्री में भीतर की दृढ़ता प्रहार करती है, यही दृढ़ता उसकी रक्षक होती है। पुरुष की सौयता उसके मन को चंचल-निर्बल रखती है।
ग्रहण और पोषण स्त्रैण भाव हैं। यही सोम का विकास है। उम्र के साथ जो शरीर बढ़ता है, वह भी स्त्रैण रूप वृद्धि है। हर स्त्री अपने तन-मन-बुद्धि के विकास को लक्ष्य में रखकर ही अपने आहार-विहार का संचालन करती है। उसे अपने अग्नि को प्रतिष्ठित रखना है। स्त्री का द्वन्द्व उसका मन है- सोमप्रधान है- चन्द्रमा से सदा ग्रसित रहता है। आप:-वायु-सोम तीन ही सोम की अवस्थाएं है। स्त्री की प्रकृति से जुड़कर ये उसके स्वरूप का निर्माण करती हैं। इसी की आहुति से उसके आग्नेय तत्त्व का विकास होता है। यही उसकी भीतर की दृढ़ता है। स्त्री की आग्नेय वाक् को सौय देह से गुजरना पड़ता है, मन की सौयता भी उसको आवरित कर देती है। अत: वह परोक्ष रूप ग्रहण कर लेती है। यही उसका दिव्य भाव है। देव सूक्ष्म तत्त्व है और शक्ति भी सूक्ष्म होने से स्त्री को शक्ति भी कहते है—
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। (दुर्गासप्तशती)

ब्रह्म का आधार तत्त्व सोम है, रेत है। माया विशुद्ध अग्नि है, जिसमें ब्रह्म समा जाता है। अत: विश्व शुद्ध माया रूप में भासित होता है। ब्रह्म का पोषण भी माया के माध्यम से ही होता है- वह तो निराकार है। स्थूल मन शरीर के साथ भटकता रहता है। ब्रह्म तक पहुंच ही नहीं पाता। माया ऋत है, पकडे़ं कैसे!
भारतीय विवाह संस्कार में यह तथ्य अदृश्य रूप में प्रतिष्ठित है। पत्नी के कर्म पति को अर्पित हो जाते हैं। यहां स्त्री शरीर (सोम) पुरुष में आहूत हो रहा है। पत्नी का अस्तित्व पति में समा गया। यहां पुरुष की बुद्धि (अग्नि) ही सोम शरीर को ग्रहण करती है। स्त्री मन पूर्ण रूपेण आहूत हो जाता है। विवाह जीवन का भीतर की ओर गति का प्रवेश काल है। पुरुष का सौय स्वरूप निखरने लगता है। जबकि आग्नेय स्त्री बाहर की ओर अग्रसर होती है। यह अभ्यास-योग का भी काल है। दोनों को अध्यात्म संस्था के संतुलन और विकासक्रम का अभ्यास भी करते रहना है। शरीर के माध्यम से, बुद्धि के सहयोग और मन की कामना के संचालन से एक-दूसरे के मन रूपी आत्मा को छूना है। वहां प्रतिष्ठित होना है। तब दोनों स्वत: ही एक-दूसरे के लिए कर्म करते जाते हैं। यही युगल सृष्टि का उपक्रम बनता है।
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प्रत्येक शरीर (वाक्) के साथ मन-प्राण का विकास होता है, चाहे वह स्त्री शरीर हो अथवा पुरुष। अन्त:करण में कारण शरीर-षोडशी पुरुष- रहता है। अत: स्त्री और पुरुष दोनों ही शरीरों के विकास के माध्यम और मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। शरीर मूल में पंच महाभूत से बना है, अन्त:करण की चेतना से चलता है। स्त्री और पुरुष भावों की उपस्थिति दोनों में ही होती है, क्योंकि दोनों ही अर्द्धनारीश्वर स्वरूप हैं। दोनों शरीरों में दोनों भाव साथ-साथ बहते हैं। कुछ प्रारब्ध के कारण और कुछ जीवेच्छा से जीवन का यह द्वन्द्व चलता जाता है। जिस दिन लक्ष्य का संकल्प सिद्ध हो जाता है, तब द्वन्द्व समाप्त होकर शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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