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जातिगत जनगणना: प्रगति का साधन या राजनीति का मोहरा?

राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंक मजबूत करने के लिए जातियों के बीच विभाजन पैदा कर सकते हैं, जिससे सामाजिक एकता को नुकसान होगा। यह समाज में संघर्ष और ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है। जातिगत जनगणना का राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास में, विभिन्न जातीय समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा और संघर्ष बढ़ सकता है। इससे सामाजिक समरसता को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है।

जयपुरOct 25, 2024 / 09:30 pm

Gyan Chand Patni

राजेन्द्र राठौड़
पूर्व नेता प्रतिपक्ष, राजस्थान विधानसभा
जातिगत जनगणना एक संवेदनशील मुद्दा है, जो लंबे समय से भारतीय समाज और राजनीति में चर्चा का विषय रहा है। जातिगत जनगणना की मांग एक बार फिर से भारत की सामाजिक और राजनीतिक चर्चाओं के केंद्र में आ गई है। यह मुद्दा कहने को तो सामाजिक न्याय से जुड़ा है, परन्तु वस्तुस्थिति में यह राजनीतिक सत्ता संतुलन को भी प्रभावित करता है। ब्रिटिश काल के दौरान भारत में पहली जनगणना वर्ष 1872 में हुई, लेकिन संपूर्ण और व्यवस्थित जनगणना वर्ष 1881 में हुई। अंग्रेजों के दौर में भारत में जातियों के हिसाब से लोगों को गिना जाता था। ब्रिटिश काल में देश में आखिरी बार वर्ष 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी। 1931 के बाद स्वतंत्र भारत में जातिगत जनगणना बंद कर दी गई। वर्ष 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। केंद्र सरकार के मुताबिक, जो आंकड़े हासिल हुए थे, वे त्रुटिपूर्ण और अनुपयोगी थे।
वर्ष 2021 में कोरोना काल के कारण जनगणना नहीं हो पाई। जनगणना नहीं होने के बावजूद कई शोध होते रहे हैं, जो जनगणना वाले काम को आगे बढ़ाते हैं। संविधान के तहत जनगणना करवाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है। जनगणना एक वैधानिक प्रक्रिया है और जनगणना अधिनियम 1948 के तहत होती है। वर्ष 2023 में बिहार में जातीय सर्वेक्षण हुआ। इससे पहले कर्नाटक ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना कराई थी, जिसका नाम बाद में ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे कर दिया गया, लेकिन इसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं हुई। सवाल यह है कि जातिगत जनगणना से सामाजिक विभाजन होने की संभावना से कैसे निपटा जाएगा? आवश्यकता इस बात की है कि जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल अलग-अलग जातियों और समुदायों की भलाई के लिए किया जाए, न कि राजनीतिक हथकंडे अपनाने के लिए। सरकारों और राजनीतिक दलों को जिम्मेदारी के साथ काम करना होगा। इसका उद्देश्य केवल सामाजिक आंकड़े एकत्र करना नहीं होना चाहिए, बल्कि समाज के सभी वर्गों के विकास और सशक्तीकरण की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
जब कोई मुद्दा राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो इसका मूल उद्देश्य भटक सकता है और यह समाज के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। इस संदर्भ में जातिगत जनगणना को एक संतुलित दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। जातिगत जनगणना का मूल उद्देश्य समाज के पिछड़े और वंचित वर्गों की पहचान करना और उनके लिए उपयुक्त नीतियां बनाना हो। इसे राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी फायदे के लिए जातियों के ध्रुवीकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। अगर इसका उद्देश्य केवल वोट बैंक बनाना हो जाए, तो असली मुद्दे गौण हो जाएंगे और जातिगत असमानता बनी रहेगी। अगर जातिगत जनगणना को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो इससे जातिवाद और बढ़ सकता है।
राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंक मजबूत करने के लिए जातियों के बीच विभाजन पैदा कर सकते हैं, जिससे सामाजिक एकता को नुकसान होगा। यह समाज में संघर्ष और ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है। जातिगत जनगणना का राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास में, विभिन्न जातीय समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा और संघर्ष बढ़ सकता है। इससे सामाजिक समरसता को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। जब भारत विकास और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है, तब जातिगत जनगणना हमें कहीं न कहीं पीछे की ओर धकेल सकती है।

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