समतामूलक शिक्षा हो विकास का आधार
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हमें पुनर्विवेचन के लिए एक अवकाश देता है कि जहां हम शिक्षा और उसके लिए की जा रही कवायद को जनधर्मिता और समतामूलक भागीदारी के संदर्भ में उद्घाटित कर सकें । ऐसा करके ही हम शिक्षा के प्रति सार्वजनिक स्वीकार्यता, अपेक्षा एवं आकांक्षा को अक्षुण्ण रख सकेंगे और राष्ट्रीय शिक्षा दिवस की मंशा के अनुरूप सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय प्रेम और अपनेपन की भावना को शिक्षा के राष्ट्रीयकृत ढांचे के माध्यम से पोषित कर सकेेंगे।
डॉ. संजय शर्मा
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर में सहायक प्राध्यापक
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 अपनी वैचारिकी में शिक्षा को एक ऐसी आधारभूत एवं बहु-उद्देशीय परियोजना के रूप में प्रस्तुत करती है, जहां शिक्षा किसी व्यक्ति, समाज अथवा व्यवस्था को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र को संवर्धित और परिवर्तित करने में सामथ्र्यवान होती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मूल प्रस्तावना लोकतांत्रिक, समतामूलक और ज्ञान-आधारित समाज के निर्माण में सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को अनिवार्य मानती है। किन्तु, भारतीय उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति और प्रगति यह बताती है कि 1100 से अधिक विश्वविद्यालयों, 40000 महाविद्यालयों और 11000 एकल विशेषज्ञता के उच्च शिक्षण संस्थानों के साथ 2035 तक भी हम उच्च शिक्षा के नामांकन में केवल आधी आबादी को ही ले जाने में समर्थ होंगे।
भारतीय उच्च शिक्षा तंत्र दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शिक्षा तंत्र है, जिससे चार करोड़ से अधिक विद्यार्थी और 15.03 लाख शिक्षक जुड़े हैं। चिंताजनक बात यह है कि ‘बिग डाटा, मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ की ‘ज्ञानमीमांसीय त्रयी’ से संदर्भित 21वीं सदी के संधान के लिए ‘अर्जुन’ बिना ‘गुरु’ के तैयार हो रहे हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे प्रमुख उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के एक तिहाई से अधिक पद खाली हैं। वहीं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में 40 – 47 प्रतिशत पदों पर शिक्षक नहीं हैं। 48 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के लगभग 6000 पद रिक्त हैं। राज्य विश्वविद्यालयों में यह स्थिति और भी निराशाजनक है। कमोबेश विद्यालयी शिक्षा भी इस तरह के हालात से गुजर रही है।
संसदीय प्रतिवेदन (2021-22) के आंकड़े बताते हैं कि देश में 1,17,285 विद्यालय ‘एकल शिक्षक पाठशाला’ के रूप में संचालित हंै। शैक्षिक नवाचार के रूप में विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त कर रहे दिल्ली प्रांत में 64000 शिक्षकों की तुलना में महज 35000 नियमित शिक्षक हैं। ऐसे में ‘शिक्षा को बदलने की कवायद’ अपने आप में ही एक सवाल खड़ा कर देती है । वर्तमान में निजी और सरकारी शिक्षा तंत्र के बीच गहराता अंतर चिंताजनक स्तर पर है। यू-डायस की रिपोर्ट (2021-22) के हवाले से अंग्रेजी माध्यम के मध्यमवर्गीय ‘पब्लिक’ स्कूलों की संख्या 3.35 लाख (22.4 प्रतिशत) है, निजी या ट्रस्ट-प्रबंधित ‘कुलीन’ बोर्डिंग स्कूल 2500 एवं कॉन्वेंट स्कूल लगभग 30000 हंै। जहां एक ओर सरकारी शिक्षा तंत्र में आश्रम स्कूल, एकल शिक्षक पाठशाला (1,17,285), खुली जगह या अस्थायी इमारतों के नीचे चलने वाले विद्यालय (हर 40 में से 01) हैं, वहीं दूसरी ओर उत्कृष्टता के मानक से परिभाषित केन्द्रीय विद्यालय (1248) भी हैं ।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के आने के बाद अभी हाल ही में देशभर में 14500 प्रधानमंत्री स्कूल फॉर राइजिंंग इंडिया (पी.एम. श्री) खोले गए हैं, जिन पर पांच साल में 27360 करोड़ रुपए खर्च किए जाने हैं। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश प्रांत में भी 2519 करोड़ रुपए की लागत से मुख्यमंत्री उदय (269) विद्यालय संचालित हो रहे हैं। नीतिकारों ने पीएम श्री एवं मुख्यमंत्री उदय को शिक्षा के क्षेत्र में एक नवाचारी पहल एवं सामाजिक क्रांति के रूप में समझा है। इसके तहत स्कूलों को आकर्षक और साधन संपन्न बनाया जाएगा। वहां योग्य, कुशल, मेहनती और समर्पित शिक्षकों के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जाएगी ।
अमानवीय पहलू यह है कि समावेशी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बावजूद बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझते हुए बच्चों से हम 21वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व प्रदान करने की अपेक्षा कर रहें हैं। इस तरह शिक्षा तंत्र के भीतर और उसके हवाले से किए जाने वाले नवाचार वस्तुत: शैक्षिक गैर-बराबरी के संस्थायीकरण को ही विस्तृत कर रहे होते हैं। अभी हाल ही उत्तर प्रदेश शासन ने नामांकन की न्यूनता के कारण लगभग 27000 प्राथमिक विद्यालयों को बंद करने का प्रस्ताव तैयार किया है, यही हाल मध्यप्रदेश का है, जहां पिछले साल लगभग 5000 पाठशालाएं आदिवासी क्षेत्रों में बंद कर दी गईं। 21वीं सदी में भी भारतीय शिक्षा तंत्र उन्हीं सब गैर-बराबरी और विषमताओं को अपने साथ बनाए हुए है। स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक व्याप्त यह संरचनात्मक और संगठनात्मक विभाजन वस्तुत: विद्यार्थियों का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विभाजन ही नहीं अपितु ‘ज्ञान-कौशल और दक्षता’ में अब एक नए प्रकार के ‘शिक्षाशास्त्रीय विभाजन’ का संपोषक भी है । इक्कीसवीं सदी इस मायने में भी चुनौतीपूर्ण है, कि आधुनिक पूंजीवाद और व्यावसायिकता ने अपनी प्रकृति को जहां विशुद्ध व्यावसायिक बनाए रखा है, वहीं इसने बाजार और व्यावसायिकता के नए क्षेत्रों को भी विकसित किया है। शिक्षा का क्षेत्र एक ऐसा ही क्षेत्र हैं, जिसे पूंजीवादी एवं व्यावसायिक घराने आर्थिक संभावनायुक्त, बाजार और लाभदायक विनिवेश के रूप में मजबूत कर रहे हैं ।
इस मनो-आर्थिकी ने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन के लिए ‘सेवा’ की अवधारणा से विमुक्त करते हुए एक उपभोक्तावादी वस्तु के रूप में नए अर्थ-संदर्भ प्रदान किए हैं, जहां इसकी खरीद-फरोख्त की जा सके। शिक्षा का बदलता यह बाजारी स्वरूप शिक्षा के जन-सेवाधर्मी नैसर्गिक स्वरूप को न केवल तोड़ रहा है बल्कि शिक्षा के ‘परिवर्तनकारी सामथ्र्य’ को भी क्षीण बनाता है। राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हमें पुनर्विवेचन के लिए एक अवकाश देता है कि जहां हम शिक्षा और उसके लिए की जा रही कवायद को जनधर्मिता और समतामूलक भागीदारी के संदर्भ में उद्घाटित कर सकें । ऐसा करके ही हम शिक्षा के प्रति सार्वजनिक स्वीकार्यता, अपेक्षा एवं आकांक्षा को अक्षुण्ण रख सकेंगे और राष्ट्रीय शिक्षा दिवस की मंशा के अनुरूप सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय प्रेम और अपनेपन की भावना को शिक्षा के राष्ट्रीयकृत ढांचे के माध्यम से पोषित कर सकेेंगे।
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