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शरीर ही ब्रह्माण्ड: परा प्रकृति है स्त्री की दिव्यता

मूल में सृष्टि संचालन के हेतु बनते हैं शाप और वरदान। कैकेयी ने युद्ध में दशरथ की जान बचाई और वरदान प्राप्त किए। राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। सीता का अपहरण हुआ- रावण वध हुआ। क्या कैकेयी को यह सब अनुमान था?

जयपुरJan 18, 2025 / 11:51 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
शरीर की भाषा शरीर समझता है, मन की भाषा मन। शरीर भी बिना शब्दों के समझ जाता है और मन का मौन ही भाषा है। प्रत्येक व्यक्ति के जीने का भी एक स्तर होता है। उसके अपने गुण एवं प्रकृति होते हैं। स्थूल जीवन का संचालन सूक्ष्म स्तर से होता है और सूक्ष्म स्तर टिका होता है कारण शरीर पर। मूल तो कारण में ही रहता है। कारण का प्रभाव भी अटल होता है, क्योंकि यही प्रारब्ध का स्तर भी है। कारण पहुंच के बाहर होता है, किन्तु जब सूक्ष्म अपने पर व्यवहार करता है, तब कारण की सीमा को छूने लगता है। सूक्ष्म का केन्द्र ही तो कारण है।

मन के भी चारों धरातल सूक्ष्म हैं। मन चंचल भी है, तो मन शिव संकल्पवान भी है। जीवन की दिशा मन का संकल्प ही तय करता है। संकल्प भी सूक्ष्म धरातल से जोड़कर रखता है। यह महन्मन का क्षेत्र है। जीवात्मा का आश्रय है। पश्यन्ति वाक् की प्रधानता है। ध्वनि के स्पन्दन ही सम्प्रेषण करते हैं। जैसे गर्भस्थ शिशु से संवाद होता है। इसकी गति-शक्ति अद्भुत होती है। जीवन स्वयं में क्या है? मन की- काम की अभिव्यक्ति के माध्यम से आनन्द की प्राप्ति का लक्ष्य। उधर ही जीवन गतिमान हो जाता है।

काम-क्रोध-लोभ गीता में तीनों को नरक का द्वार कहा है (गीता 16.21)। ये तीनों भी मन की ही विभूतियां हैं। श्रद्धा-प्रेम-शान्ति जैसे गुण भी उसी मन की विभूतियां हैं। मन की पहली दशा सृष्टि-साक्षी है। मन की दूसरी दशा मुक्ति साक्षी है। जब तक मन अपनी इच्छित दिशा में निर्बाध गति से चलता है- शान्त रहता है। चंचल स्वभाव के कारण मन में क्षोभ होता रहता है। इन्द्रियों के स्थूल विषय मन को चंचल बनाते रहते हैं। सूक्ष्म मन तक सूक्ष्म मन ही पहुंच सकता है। वह अक्षर सृष्टि के हृदय में पैदा होता है। अन्य मानव के सूक्ष्म मन से ही प्रभावित हो सकता है। यह परा प्रकृति का क्षेत्र है। या तो ऋषि कोटि का साधक पुरुष अथवा पुरुष-हृदय में प्रतिष्ठित स्त्री प्राण ही इस क्षेत्र में गमन करते हैं।

पुरुष और प्रकृति की इस सृष्टि में दोनों ही एक-दूसरे के सूक्ष्म मन को प्रभावित करते हैं। दोनों की परस्पर अनुकूलता प्रियता का मार्ग है और प्रतिकूलता विरोधी मार्ग है। प्रियता का चरम आनन्द की स्थिति बन जाता है। विपरीत स्थिति क्रोध को आमंत्रित करती है। जीवन-रक्षा करने वाला तो मानो ईश्वर स्वरूप है। उसको हर मनोकामना की पूर्ति का आशीर्वाद दिया जाता है-जिसे ऋषि कोटि का वरदान कहा जाता है। साधक पुरुष त्रिकालदर्शी होता है। वही क्रोधित होकर शाप भी दे सकता है।
वरदान और शाप अपनों को ही दिए जाते हैं। देने वालों को इस बात का ज्ञान रहता है कि पाने वाले के जीवन में क्या प्रभाव पडऩे वाला है। विशेषकर शाप देने वाले को यह भी मालूम तो रहता ही है कि शाप से कब और कैसे मुक्ति मिलेगी। आमतौर पर शापित व्यक्ति मुक्ति को लेकर प्रश्न भी करता है। अर्थात् शाप देने वाले को शापित व्यक्ति के भविष्य की जानकारी भी अनिवार्य रूप से रहती है। शाप हो अथवा वरदान दोनों में ही निमित्त कारण तो स्थूल ही होते हैं। शाप/वर देने की शक्ति सूक्ष्म में ही होती है। अहिल्या को पत्थर बनने के शाप के साथ कह दिया गया था कि राम इधर आएंगे। उनकी चरण रज से तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। ऊर्वशी ने अर्जुन को शाप दिया था- एक वर्ष नपुंसक रहने (हो जाने) का। कहने को शाप शब्द नकारात्मक लगता है, किन्तु एक वर्ष के अज्ञातवास में यह वरदान ही प्रमाणित हुआ।

मूल में सृष्टि संचालन के हेतु बनते हैं शाप और वरदान। कैकेयी ने युद्ध में दशरथ की जान बचाई और तीन वरदान प्राप्त किए। राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। सीता का अपहरण हुआ- रावण वध हुआ। क्या कैकेयी को यह सब अनुमान था? सुग्रीव की सहायता के लिए राम ने बाली का वध किया। बाली की अप्सरा पत्नी तारा ने शाप दिया कि बाली ही तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा। अगले अवतार रूप में कृष्ण की मृत्यु जिस बहेलिये के तीर से हुई वह बाली ही था।
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पुरुष बाहर आग्नेय भीतर सौम्य है- निराकार है। उसे स्वरूप रक्षा के लिए तपना पड़ता है। साधना करनी पड़ती है। शरीर को छोड़कर हृदय (सूक्ष्म शरीर) पर अधिकार करना पड़ता है। दृढ़ संकल्प से ही यह संभव है। स्त्री का भी पति के साथ दृढ़ संकल्प ही उसे पुरुष हृदय में प्रतिष्ठित करता है। ऋग्वेद में इस विषय को इंगित करते हुए सूर्या सूक्त में कहा है-हे वधू! सुन्दर मुख वाले सूर्य ने तुम्हें जिस बन्धन से बांधा था, मैं तुम्हें वरुण के उस पाश से छुड़ाता हूं। मैं तुम्हें पति के साथ सत्य के आधार एवं सत्कर्म के लोक रूप स्थान में निर्विघ्न रूप से स्थापित करता हूं।

प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेव: ।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥ (ऋ. 10.85.24)


मैं कन्या को पिता के कुल से छुडा़ता हूं, पति के कुल से नहीं। मैं पति के घर से इसे भली-भांति बांधता हूं। हे अभिलाषापूरक इन्द्र! यह सौभाग्य एवं शोभन पुत्र वाली हो।

प्रेतो मुञ्चामि नामुत: सुबद्धाममुतस्करम् ।
यथेयमिन्द्र मीढ्व: सुपुत्रा सुभगासति ॥ (ऋ. 10.85.25)


ऋग्वेद के इस सूक्त में विवाह सम्बन्धित 47 मंत्र हैं जो विवाह के दिव्य स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। इनके अलावा भी विवाह के कुछ मंत्र पारस्कर गृह्य सूत्र में पत्नी के प्राणों का स्थान पति के हृदय में प्रतिष्ठित बताते हैं। यानी कि पुरुष हृदय में पिता के- श्वसुर के प्राण साथ रहते हैं। वह पत्नी की परा प्रकृति (सूक्ष्म प्राण) का कार्य करते हैं तथा पति के प्राणों के साथ ही गमन किया करते हैं। दोनों के प्राण सहचर रूप में जीवन संचालन करते हैं-

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ये दोनों ही प्राण आग्नेय हैं। हृद् प्राणों के साथ कर्म करते हैं। स्त्री के आग्नेय किन्तु सत्य अंश के पोषक प्राण हैं। इन पर जब किसी अन्य प्राण का आक्रमण होता है, तो बलवान रूप होकर उन्हें शापित कर सकते हैं। उनकी हानि कर सकते हैं। इनके साथ ब्रह्म स्वयं युक्त रहते हैं। द्रोपदी चीरहरण के बाद कौरव वंश को शाप देने लगी, तब गांधारी ने से रोका। ”तुम और कोई सजा दे दो, शाप मत दो।‘’ उसे शाप की शक्ति का ज्ञान था। महाभारत के अन्त स्वयं गांधारी ने कृष्ण को यादव वंश के सर्वनाश का शाप दिया था। सच निकला था।

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श्राप कहो- वर कहो, आत्मा की अव्यय वाक् है। शाप तो एक प्रकार से आत्मा का आक्रमण या प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रिया ही है। वैसे दोनों में ही ईश्वरीय विभूति प्रतिष्ठित रहती है। इसे संकल्पित पत्नी का ब्रह्मास्त्र कह सकते हैं जो उसकी दिव्यता का ही प्रमाण है। पति का प्रत्येक कर्म उसे प्रत्यक्ष रहता है। एक व्यक्ति ने आत्म-स्वीकारोक्ति दी कि दिन में जिन शब्दों का प्रयोग मैं अपनी प्रेमिका के साथ करता था, वे ही शब्द पत्नी रात को आपसी संवाद में प्रयुक्त कर लेती थी। स्त्री की यह सूक्ष्म अवस्था ही उसकी ‘मोनोपोली’ है। इसीलिए कहा है—यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते- रमन्ते तत्र देवता:।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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