सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों राज्यसभा में उपजे हालात के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार भले ही ठहरा रहे हों लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं कि आखिर जनता से जुड़े मसलों पर लोकतंंत्र के मंदिर कहे जाने वाले इन सदनों में चर्चा का वक्त हमारे माननीयों के पास क्यों नहीं है? मानसून सत्र के आखिरी दिन राज्यसभा में हंगामे के जो वीडियो सामने आए हैं वैसा हमारे यहां विधायिकाओं के इतिहास में नया नहीं है। संसद के उच्च सदन में मेजों पर चढऩे व रूल बुक आसन पर फेंकने जैसा बर्ताव, संसदीय परम्पराओं की घोर अनदेखी ही है। साथ ही इन सबकी वजह से जनता की उम्मीदों पर पानी ही फिरता है।
समूचे घटनाक्रम को लेकर गुरुवार को भी दिनभर पक्ष-विपक्ष दोनों ने खुद को सही बताते हुए एक-दूसरे को जिम्मेदार भले ही ठहरा दिया हो। लेकिन, मूल सवाल फिर वहीं का वहीं है कि आखिर क्या जनता हमारे जनप्रतिनिधियों को इसलिए चुनती है कि वक्त-जरूरत पर वे उनकी पीड़ा भी भूल जाएंगे? लोकतंत्र में विधायिका के किसी भी सदन को चलाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार की है तो विपक्ष की भी कम नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको अपनी बात कहने की आजादी है, लेकिन मनमानी की नहीं। फिर यह चाहे सत्ता पक्ष की हो या फिर विपक्ष की। हो सकता है कि राज्यसभा के इस घटनाक्रम के बाद कुछ माननीयों के खिलाफ कार्रवाई भी हो जाए लेकिन ऐसा दृश्य विधायिकाओं में देखने को भविष्य में नहीं मिले, इसकी पुख्ता व्यवस्था आखिर क्यों नहीं की जाती?
अब तक के अनुभवों से यही सामने आया है कि कभी सत्ता पक्ष और कभी विपक्ष की हठधर्मिता ही गतिरोध बढ़ाती है। गतिरोध भी ऐसा, जिससे हमारे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती ही दिखती हैं। देश की जनता अपना कीमती वोट देकर जिन उम्मीदों से जनप्रतिनिधियों को भेजती है, वे भी समय की कीमत नहीं समझ रहे यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। सदनों की कार्यवाही कहीं भी बाधित हो तो उसकी कीमत भी माननीयों से ही वसूली जानी चाहिए।